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प्रस्तावना
२९
सकता । नर्तको उन्हीं पुरुषोंमें राग या विराग पैदा करती है जिनमें उसके प्रति राग या विराग भाव होता है। किसी घड़े या लकड़ीमें वह रागविराग भाव उत्पन्न नहीं करती। इससे स्पष्ट है कि जबतक पुरुषमें राग या विराग भावरूप होनेकी योग्यता न होगी, तबतक प्रकृति-ससर्ग उसमें न अनुराग पैदा कर सकता है और न विराग । अन्यथा, मुक्त अवस्थामें प्रकृति-संसर्ग रहनेसे मुक्तोंके भी रागादि विकार उत्पन्न होना चाहिए। प्रधानका' मुक्तके प्रति निवृत्ताधिकार और संसारी आत्माके प्रति प्रवृत्ताधिकार मानकर भी उक्त दोषका निराकरण नहीं किया जा सकता है, क्योंकि प्रधानको निवृत्तार्थ और प्रवृत्तार्थ इसलिए कहा जाता है कि पुरुष प्रकृतिका संसर्ग छूट जानेपर संसारमें संसरण नहीं करता और उसका संसर्ग रहनेपर वह संसारमें प्रवृत्त होता है। वास्तवमें निवृत्तार्थ और और प्रवृत्तार्थका व्यवहार पुरुषकी ओरसे है, प्रकृतिको ओरसे नहीं । इसके अतिरिक्त प्रधानमें विरोधी धर्मोका अध्यास होनेसे वह एक और निरंश नहीं बन सकता।
छठे, अचेतन प्रकृतिको यह ज्ञान कैसे हो सकता है कि 'पुरुषको विवेक उत्पन्न हो गया है और वह मुझसे विरक्त हो गया है ?' वास्तवमें पुरुष हो प्रकृतिसे संसर्ग करनेकी इच्छा करता है और विवेक होनेपर वह उससे छूटनेके लिए छटपटाता है। अतः पुरुषको ही परिणामि-नित्य तथा ज्ञानस्वभाववाला मानना चाहिए और उसीको बन्ध एवं मोक्षका वास्तविक अधिकारी स्वीकार करना चाहिए।
सातवें, अन्ध और पंगुके उदाहरण-द्वारा प्रकृति और पुरुषमें संसर्गकी कल्पना करके उससे जो पुरुषके दर्शन तथा प्रधानके कैवल्य एवं सर्गोत्पत्ति
१. 'केवलं मुक्तात्मानं प्रति नष्टमपीतरात्मानं प्रत्यनष्टं निवृत्ताधिकारत्वात् प्रवृत्ताधिकारत्वाञ्चेति, न, विरुद्धधर्माध्यासस्य तदवस्थत्वात्प्रधानस्य भेदानिवृत्तेः ।'-आप्तप० पृ० १५९ ।
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