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प्रमाणप्रमेयकलिका
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का कथन किया जाता है वह भी आपातरम्य प्रतीत होता है, क्योंकि जिस प्रकार अन्धा और पंगु दोनोंमें परस्पर मिलनेकी इच्छा तथा उस प्रकारको प्रवृत्ति होनेपर उनका सम्बन्ध ( मिलन ) होता है उसी तरह जबतक पुरुष और प्रकृति दोनोंमें संसर्गकी इच्छा और स्वतन्त्र परिणमनकी योग्यता नहीं होगी, तबतक उनमें न संसर्ग सम्भव है और न दर्शन, कैवल्य और सृष्टि ही । ये दोनों परस्पर विजातीय हैं और इसलिए वे एक दूसरेके परिणमनमें उपादान नहीं हो सकते ।
सांख्योंका यह मत सामान्यैकान्त, नित्यत्वैकान्त या सामान्यवादके रूपमें प्रसिद्ध है, क्योंकि प्रकृतिको उन्होंने सर्वथा एक, नित्य, व्यापक, सामान्य और निरवयव तत्त्व माना है और उसे ही आविर्भाव, तिरोभाव, मूर्त, अमूर्त आदि विरोधी परिणमनोंका सामान्य आधार स्वीकार किया है । परन्तु हम ऊपर देख चुके हैं कि वह न अनुभव- सिद्ध है और न अनुमानादि प्रमाण सिद्ध है । प्रस्तुत ग्रन्थ में नरेन्द्रसेनने सांख्योंके इस विशेष - निरपेक्ष सामान्यैकान्त अथवा सामान्यवादकी आलोचना करते हुए 'निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छशविषाणवत् ।' कुमारिल भट्टकी इस युक्ति और दूसरे अनेक तर्कों द्वारा उसका निराकरण किया है। उन्होंने लिखा है कि विशेष-रहित अकेला सामान्य कहीं भी उपलब्ध नहीं होता और वह उसी तरह अवस्तु है, जिस तरह केवल सामान्य-रहित विशेष या स्वतन्त्र दोनों और इसलिए सामान्य विशेषात्मक अनेकान्त —– अर्थ प्रमेय हैप्रमाण-विषय है।
१. 'पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥'
सांख्यका० ० २१ ।
२. श्राप्तमी ० का ० ३६-४० तथा जैनदर्शन पृ० ४६१ । ३. 'सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः । - परीक्षामु० ४ –
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