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प्रस्तावना
सुखी करती है; क्योंकि वह उसके प्रति सुखरूप है । अपनी सौतोंको दुःख उत्पन्न करती है; क्योंकि उनके लिए वह दुःखरूप है और दूसरे पुरुषों को वह मोहित करती है; क्योंकि उनके प्रति वह मोहरूप है । उसी तरह प्रकृति भी परस्पर विरोधी सुख, दुःख और मोहरूप परिणमनोंको पुरुषमें उत्पन्न करती है और इसलिए प्रकृतिसे उक्त प्रकारके कार्योंके माननेमें कोई असंगति नहीं है । यह कथन भी युक्त प्रतीत नहीं होता; क्योंकि स्त्रीका उदाहरण विषम है | स्त्री चेतन है, और प्रकृति अचेतन । अतः स्त्रीको तो सुखादिरूप मानना उचित है, पर प्रकृतिको सुखादिरूप मानना उचित नहीं है । और इसलिए सुखादि- परिणाम - रहित अचेतन प्रकृति उन सुख-दुःखमोहादि चेतन - परिणामोंका उपादान नहीं हो सकती । चेतन - परिणामोंका उपादान चेतन ही हो सकता है । वास्तवमें सुख, दुःख, मोह आदि अन्तस्तत्त्व के ही परिणाम हैं, जडके नहीं । यदि कहा जाय कि सुखादि परिणाम अन्तस्तत्त्व के नहीं हैं, किन्तु वे प्रधानके हैं, प्रधानके संसर्गसे वे अन्तस्तत्त्वके मालूम पड़ने लगते हैं, तो यह कथन भी बुद्धिको नहीं लगता; क्योंकि संसर्गसे यदि किसी वस्तु या वस्तु धर्मकी व्यवस्था की जाये तो न किसी वस्तुकी और न उसके अपने किसी धर्मकी स्वतन्त्र व्यवस्था हो सकेगी । अतः प्रतीति के अनुसार वस्तु व्यवस्था होनी चाहिए ।
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चौथे, यदि प्रकृतिको ही बन्ध और मोक्ष होते हैं तो पुरुषको कल्पना व्यर्थ है । भोक्ता के रूपमें उसकी कल्पना भी युक्त नहीं है, क्योंकि बुद्धिमें
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१. 'सुख-दुख - मोहरूपतया घटादेरन्वयाभावादन्तस्तत्त्वस्यैव तथोपलम्भात् । ' - प्रमेयर० पृ० १५० ।
२.
'संसर्गादविभागश्वेदयोगोलकवह्निवत् । भेदाभेदव्यवस्थैवमुच्छिन्ना सर्ववस्तुषु ॥ '
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३. ' तदसम्भवतो नूनमन्यथा निष्फलः पुमान् ।
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- प्रमेयरल० पृ० १५१ ।
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