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________________ २६ प्रमाणप्रमेयकलिका उनमें उनका सद्भाव नहीं है तब उनके कारण-प्रधानमें इन सत्त्वादि गुणोंका अस्तित्व असम्भव है । चेतन आत्मामें ही वे पाये जाते हैं। और तो क्या, इन तीनों गुणोंके कार्य, जो प्रसाद, प्रकाश, ताप, राग, द्वेष, मोह, शोष, सुख, दुःख आदि बतलाये गये हैं वे भी चेतन आत्माओंमें ही देखे जाते हैं, किसी अचेतनमें नहीं । दूसरे, पृथिवी आदि मूर्तिक हैं और आकाश अमूर्तिक है, ये परस्परविरोधी कार्य एक ही कारण ( प्रधान ) से कैसे उत्पन्न हो सकते हैं । तीसरे, प्रधानसे महान्, अहंकार आदि जिन तत्त्वोंकी उत्पत्ति कही गयी है उनमें महान् तत्त्व तो बुद्धिरूप है और शेष सब अबुद्धिरूप हैं, ये सब विजातीय तत्त्व भी उसी एक कारणसे पैदा नहीं हो सकते । अन्यथा, अचेतन पञ्चभूत समुदायसे चैतन्यको उत्पत्ति भी क्यों नहीं मानी जाय और उस हालतमें चार्वाकोंका मत सिद्ध होगा, सांख्योंका नहीं । वस्तुतः बुद्धि, जिसका काम जानना है, चेतन आत्माका ही परिणाम है, वह प्रधानका, जो सर्वथा अचेतन एवं जड है, परिणाम नहीं है । ___कहा जा सकता है कि जिस प्रकार एक ही स्त्री अपने स्वामीको १. 'अमूर्तस्याकाशस्य मूर्तस्य पृथिव्यादेश्चैककारणकत्वायोगात् ।' प्रमेयरत्न० पृ० १५३ । २. 'अन्यथा, अचेतनादपि पञ्चभूतकदम्बकाच्चैतन्यसिद्धेश्चार्वाकमतसिद्धिप्रसंगात् सांख्यगन्ध एव न भवेत् ।' -प्रमेयरत्न० पृ० १५३ । ३. 'एकैव स्त्री रूपयौवनकुलशीलसम्पन्ना स्वामिनं सुखाकरोति, तत्कस्य हेतोः ? स्वामिनं प्रति तस्याः सुखरूपसमुद्भवात् । सैव स्त्री सपनीर्दुःखाकरोति, तत्कस्य हेतोः ? ताः प्रति तस्या दुःखरूपसमुद्भवात् । एवं पुरुषान्तरं तामविन्दमानं सैव मोहयति, तत्कस्य हेतोः ? तत्प्रति तस्या मोहरूपसमुद्भवात् । अनया स्त्रिया सर्वे भावा व्याख्याताः।' -सांख्यतत्त्व० पृ० ८१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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