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प्रस्तावना
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द्वारा सम्पादित भोगका वह मात्र भोक्ता है। ज्ञान पुरुषका धर्म न होकर प्रकृतिका धर्म ( परिणाम ) है | और चैतन्य ज्ञानसे भिन्न पुरुषका स्वरूप है । बुद्धिरूप दर्पण में' इन्द्रिय-विषयों और पुरुषका प्रतिबिम्ब पड़ता है । यह प्रतिबिम्ब हो भोग है और उसीका पुरुष भोक्ता है । प्रकृतिको जब यह ज्ञान हो जाता है कि 'इस पुरुषको तत्त्वाभ्यास से “मैं प्रकृतिका नहीं हूँ और प्रकृति मेरी नहीं है" इस प्रकारका विवेक हो गया है और उसे मुझसे विरक्ति हो गई है,' तब वह उसका संसर्ग उसी प्रकार छोड़ देती है, जिस प्रकार नर्तकी दर्शकोंको अपना नृत्य दिखाकर नृत्यसे विरत हो जाती है । फिर कैवल्य हो जाता है और प्रकृति से उस पुरुषका सदाके लिए संसर्ग छूट जाता है । इस प्रकार सारा खेल इस प्रकृतिका है ।
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जैन विचारकोंने सांख्योंकी इस तत्त्व - व्यवस्था पर गहराई से विचार किया है और उसमें उन्हें अनेक दोष जान पड़े हैं । पहली बात तो यह है कि प्रधानका जैसा स्वरूप ऊपर दिखाया गया है। वहन अनुभवमें आता है और न अनुमानादि प्रमाणसे सिद्ध है । प्रकृति जब जड है तब उसमें सत्त्व, रज और तमोगुण कैसे सम्भव हैं ? घट,
पट आदि किसी भी अचेतनमें उनका सद्भाव नहीं देखा जाता और जब
जैनों द्वारा सांख्योंके सामान्यवादपर विचार
१. 'बुद्धिदर्पणे पुरुषप्रतिबिम्बसंक्रान्तिरेव बुद्धिप्रतिसंवेदित्वं पुंसः । तथा च दृशिच्छायापन्नया बुद्ध्या संसृष्टाः शब्दादयो भवन्ति दृश्या इत्यर्थः । ' - योगसू० तत्त्ववै ० २-२० ।
२. ‘एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाऽहमित्यपरिशेषम् । अविपर्ययाद्विशुद्धं केवलमुत्पद्यते
ज्ञानम् ॥'
३. 'रङ्गस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा पुरुषस्य तथाssत्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते
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- सांख्यका० ६४ ॥
नृत्यात् । प्रकृतिः ॥ '
- सांख्यका० ५९ ।
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