________________
प्रस्तावना
(अ) सामान्य-परीक्षा:
सांख्योंका मत है कि प्रमाण तीन प्रकारका है --१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान और ३. आप्तश्रुति ( आगम ) । इन तीनों प्रमाणोंका विषय चार तरहका सामान्यवादी अर्थ है, जो सांख्योंके शास्त्रमें वर्णित है। कोई प्रकृति सांख्योंका ही है, कोई विकृति हो है, कोई प्रकृति और विकृति
पूर्वपक्ष दोनोंरूप है, तथा कोई अनुभयरूप है-न प्रकृति है और न विकृति है। इनमें मूलप्रकृति प्रकृति ही है--समस्त कार्य-समूहकी मलकारण है और जो विकृति नहीं है जिसका अन्य कोई कारण नहीं है। इस मूलप्रकृतिको प्रधान, बहधानक और सत्त्वरजस्तमकी साम्यावस्था भी कहा गया है । महत् आदि सात प्रकृति और विकृति दोनों हैं । प्रकृतिसे उनकी उत्पत्ति होती है, इसलिए वे विकृति है और इन्द्रियादि सोलहके गणको वे उत्पन्न करते हैं, इसलिए वे प्रकृति भी हैं । सोलहका समूह सिर्फ़ विकृति है। अर्थात् पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन और पाँच भूत ये सोलह केवल दूसरोंसे उत्पन्न होते हैं, किसी अन्यको उत्पन्न नहीं करते । पुरुष न प्रकृति है और न विकृति । वह न किसीको उत्पन्न करता है और न किसीसे उत्पन्न होता है। अतः वह अनुभयरूप है। इस तरह इन चार
१. 'इष्टमनुमानमाप्तवचनं च सर्व-प्रमाण-सिद्धत्वात् । त्रिविधं प्रमाणमिष्टं प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि ॥'
-सांख्यका० ४ । २. 'मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृति-विकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ॥'
-सांख्यका० ३ 'संक्षेपतो हि शास्त्रार्थस्य चतस्रो विधाः । कश्चिदर्थः प्रकृतिरेव कश्चिदर्थो विकृतिरेव, कश्चित्प्रकृतिविकृतिः, कश्चिदनुभयरूपः ।'
-सांख्यतत्त्व० पृ. १४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org