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प्रमाणप्रमेयकलिका
साथ ही बौद्धोंकी इस आपत्तिका भी, कि ज्ञान यदि अर्थसे उत्पन्न न हो तो वह उसे प्रकाशित नहीं कर सकता, परिहार किया है और आ० माणिक्यनन्दिकी तरह लिखा है कि जिस प्रकार दीपक अर्थसे उत्पन्न न होकर भी उसे प्रकाशित करता है उसी तरह ज्ञान भी अर्थसे उत्पन्न न होकर योग्यता के बलसे उसका प्रकाशन करता है।
इस तरह इस प्रमाणतत्त्व-परीक्षा प्रकरणमें अन्य प्रमाण-लक्षणोंकी मीमांसा करते हुए प्रमाणका निर्दोष स्वरूप, प्रमाणका फल और प्रमाणके कारणोंकी चर्चा की गयी है । यद्यपि ग्रन्थकर्ताने प्रमाणके भेदोंको भी बतलानेका आरम्भमें संकेत किया है किन्तु उनपर उन्होंने कोई विचार नहीं किया। जान पड़ता है कि उनकी दृष्टिमें प्रमाण और प्रमेयका मात्र स्वरूप बतलाना ही मुख्य रहा है और इसलिए उन्हींपर इसमें विचार किया गया है। ४. प्रमेयतत्व-परीक्षा: __अब प्रमेय-तत्त्वपर विचार किया जाता है। जो प्रमाणके द्वारा जाना जाये वह प्रमेय है । अर्थात प्रमाण जिसे जानता है वह प्रमेय कहलाता है। प्रमेयके इस सामान्य स्वरूप में किसी भी तार्किकको विवाद नहीं है । विवाद सिर्फ उसके विशेष स्वरूपमें है । सांख्य प्रमाणके द्वारा प्रमीयमाण उस प्रमेय का विशेष स्वरूप सामान्य ( प्रधान-प्रकृति ) बतलाते हैं । बौद्ध उसे विशेष (स्वलक्षण ) रूप मानते हैं । वैशेषिक सामान्य और विशेष दोनों परस्परनिरपेक्ष-स्वतन्त्रको प्रमाणका विषय प्रतिपादन करते हैं तथा वेदान्ती परमपुरुषरूप प्रमेयका कथन करते हैं । प्रस्तुतमें विचारणीय है कि प्रमाणके द्वारा जानी जानेवानी वस्तु यथार्थतः कैसी है ? प्रमेयका वास्तविक स्वरूप क्या है ? यहाँ पहले प्रमेयस्वरूप-विषयक उन सभी मान्यताओंको दिया जाता है, जिनकी इस पुस्तकमें चर्चा की गयी है और बादको प्रमेयका वह स्वरूप दिया जावेगा, जिसे जैन तार्किकोंने प्रस्तुत किया है।
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