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________________ प्रमाणप्रमेयकलिका ( ४ ) ग्रन्थ-सिद्धि में अधिकांशतः गुरुजन निमित्त होते हैं। चाहे वे उसमें साक्षात् सम्बद्ध हों या परम्परा । उनका वरद आशीर्वाद और स्मरण उसमें अवश्य ही सहायक होता है। यदि उनसे या उनके रचे शास्त्रोंसे सुबोध प्राप्त न हो तो ग्रन्थ-निर्माण नहीं हो सकता। इसलिए कुतज्ञ ग्रन्थकार अपने ग्रन्थके आरम्भमें कृतज्ञता-प्रकाशन करनेके लिए उनका स्मरण अवश्य करते है। ( ५ ) पाँचवाँ प्रयोजन शिष्य-शिक्षा है । इस प्रयोजनसे भी ग्रन्थकार चिकीर्षित शास्त्रके आदिमें मङ्गल करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि ऐसा करनेसे शिष्य-गण भी मङ्गल करेंगे और इस श्रेष्ठ परम्पराको वे स्थिर रखेंगे। ___ जैन परम्परामें ये सभी प्रयोजन स्वीकार किये गये हैं और उनका समर्थन किया गया है। आचार्य विद्यानन्दने इन प्रयोजनोंके अतिरिक्त एक प्रयोजन और बतलाया है और उसपर उन्होंने सबसे अधिक बल दिया है । वह है 'श्रेयोमार्गसंसिद्धि'। उनने लिखा है कि अन्य प्रयोजन तो पात्र. दानादिसे भी सम्भव हैं, पर श्रेयोमार्गकी सिद्धि एकमात्र परमेष्ठिगुणस्मरणसे ही हो सकती है। अतः श्रेयोमार्गसिद्धि विद्यानन्दके अभिप्राया१. अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः, प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसाद-प्रबुद्धेन हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ॥ –तत्त्वार्थश्लो० पृ० २, उद्धृत । २. श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्टिनः । इत्याहुस्तद्गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ मुनिपुङ्गवाः ।। -प्राप्तपरी० पृ. २, कारि० २। ३. देखिए, आप्तपरी० पृ० ११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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