SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना नुसार मङ्गलाचरणका मुख्य प्रयोजन है। इस मङ्गलाचरणका जैन वाङ्मयमें विस्तृत, विशद और सूक्ष्म विवेचन किया गया है। प्रस्तुत प्रमाणप्रमेयकलिकामें नरेन्द्रसेनने भी अपनी पूर्व परम्परानुसार मङ्गलाचरण किया है। इतना अवश्य है कि उन्होंने विद्यानन्दकी प्रमाणपरीक्षाके मङ्गलाचरणको ही अपने ग्रन्थका मङ्गलाचरण बना लिया है । ऐसा करके उन्होंने उसी प्रकार अपनी संग्रहशालिनी एवं उदार बुद्धिका परिचय दिया है जिस प्रकार पूज्यपादने आचार्य गद्धपिच्छके तत्त्वार्थसूत्रगत मङ्गल-श्लोकको अपनी सर्वार्थसिद्धिका मङ्गलाचरण बनाकर दिया है । अतः इस प्रकारको प्रवृत्ति ग्रन्थकर्ताके हृदयकी विशालता और संग्राहक बुद्धिको प्रकट करती है। २. तत्त्व-जिज्ञासा: ____ तत्त्व-विचारकोंके समक्ष 'तत्त्व क्या है ?' यह ज्वलन्त प्रश्न सदा रहा है और उसपर उन्होंने न्यूनाधिक रूपमें विचार किया है। जो विचारक उसकी जितनी गहराई और तह तक पहुँच सका, उसने उसका उतना विवेचन किया। कई विचारकोंने तो बालकी खाल निकालनेका प्रयत्न किया है और तत्त्वको विकल्पजालमें आबद्ध ( फाँस ) कर या तो उसे 'उपप्लुत' कह दिया है और या उसे 'शून्य' के रूपमें मान लिया है। तत्त्वोप्लववादी प्रमाण और प्रमेय दोनों तत्त्वोंको उपप्लुत ( बाधित ) बतलाकर 'तत्वोपप्लववाद' की स्थापना करते हैं। शून्यवादी उन्हें शून्य रूपमें स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि में न प्रमाण तत्त्व है और न प्रमेय तत्त्व-केवल शून्य तत्त्व है। ये विचारक तत्त्वोपप्लव या शून्य तत्त्वको स्वीकार करते १. देखिए, तिलोयपण्णत्ति १-८ से १-३१ तथा धवला १-१-१। २. देखिए, 'तत्त्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण' शीर्षक लेखकके दो लेख, अनेकान्त वर्ष ५, किरण ६-७, १०-११। तथा आप्तपरी० की प्रस्ता० पृ० २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy