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प्रस्तावना
इन प्रयोजनोंको संग्रह करनेवाला निम्न लिखित पद्य है, जिसे पण्डितप्रवर आशाधरजी ( वि० सं० १३०० ) ने अपने अनगार-धर्मामृतको टीका ( पृ० १ ) में उद्धृत किया है ।
नास्तिकत्व-परिहारः शिष्टाचार-प्रपालनम् ।
पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं शास्त्रादावाप्तसंस्तवात् ।। १. प्रत्येक ग्रन्थकारके हृदयमें ग्रन्थारम्भके समय सर्वप्रथम यह कामना होती है कि यह प्रारम्भ किया गया मेरा कार्य निर्विघ्न समाप्त हो जाय।' न्याय तथा वैशेषिक दोनों दर्शनोंमें 'समाप्तिकामो मङ्गलमाचरेत्' इस वाक्यको श्रुति-प्रमाणके रूपमें प्रस्तुत करके समाप्ति और मङ्गलमें कार्यकारणभावकी स्थापना की गई है। जहाँ मङ्गलके होनेपर भी समाप्ति नहीं देखी जाती वहां मङ्गलमें कुछ न्यूनता–साधनवैगुण्यादि बतलाई गई है तथा जहाँ मङ्गलके बिना भी ग्रन्थ-समाप्ति देखी जाती है वहां जन्मान्तरीय मङ्गलकी कल्पना की गई है और इस तरह प्राचीन नैयायिकोंने समाप्ति एवं मङ्गलमें कार्यकारणभावको संगति बिठाई है। नवीन नैयायिकोंका मत है कि मङ्गलका सीधा फल तो विघ्नध्वंस है और समाप्ति ग्रन्थकर्ताको प्रतिभा, बुद्धि और पुरुषार्थका फल है। इनके अनुसार विघ्नध्वंस और मङ्गलमें कार्यकारणभाव है।
२. मङ्गल करना एक शिष्ट कर्तव्य है। इससे सदाचारका पालन होता है । अतः प्रत्येक ग्रन्थकारको इस शिष्टाचारका पालन करनेके लिए ग्रन्थके आरम्भमें मङ्गल करना आवश्यक है।
३. परमात्माका गुणस्मरण करनेसे परमात्माके प्रति ग्रन्थकर्ताकी भक्ति, श्रद्धा और आस्तिक्य बुद्धि जानी जाती है और इस तरह नास्तिकताका परिहार होता है। अतः ग्रन्यकर्ता इस प्रयोजनसे भी ग्रन्थारम्भमें मङ्गल करते हैं।
१. २. देखिए, सिद्धान्तमुक्तावली पृ० २ ।
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