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प्रमाणप्रमेयकलिका
कुछ सम्प्रदायोंमें मान्य हैं। प्रत्यक्षसे लेकर अनुपलब्धिपर्यन्त छह प्रमाण भट्टानुयायी मीमांसकोंको मान्य हैं, 'व्यवहारे भाट्टनयः' इस नीतिके अनुसार अद्वैतवेदान्तियोंको भी ये ही छह प्रमाण स्वीकृत हैं। प्रभाकरानुयायी मीमांसक अनुपलब्धिको छोड़कर अर्थापत्तिपर्यन्त पाँच ही प्रमाण मानते हैं । उपमानतक चार प्रमाण नैयायिकोंको मान्य है। शब्दपर्यन्त तीन प्रमाण सांख्य-योग दर्शनमें स्वीकृत हैं। प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण वैशेषिक तथा बौद्ध दोनों दर्शनोंमें माने गये हैं। केवल एक ही प्रत्यक्ष प्रमाण अत्यन्त स्थूल पदार्थवादी चार्वाक दर्शन स्वीकार करता है। प्रमाणों की संख्याकी तरह उनके स्वरूपमें भी दार्शनिकोंमें मतभेद है। इन सबका विशेष अध्ययन इन दर्शनोंके दर्शन-ग्रन्थोंसे किया जा सकता है । जैन दर्शनमें प्रमाण-व्यवस्था :
तत्त्व-जिज्ञासुओंको जिज्ञासा हो सकती है कि जैनदर्शनमें प्रमाणका स्वरूप क्या है ? उसके कितने भेद माने गये हैं ? उसका फल और विषय क्या है ? जैनदर्शनमें इन प्रश्नोंपर विस्तारके साथ ऊहापोह किया गया है । जैनाचार्योंकी मान्यता है कि इन्द्रिय या इन्द्रियार्थसन्निकर्ष प्रमाण नहीं हो सकता। किन्तु अन्वय-व्यतिरेकसे स्वार्थपरिच्छेदी ज्ञानको ही प्रमाण माना जा सकता है। इन्द्रिय, और सन्निकर्षादि-सामग्रो-समवधान-दशामें भी ज्ञानके अभावमें वस्तुकी परिच्छित्ति नहीं होती। इस कारण अपना और अन्यका सम्यक् निश्चय करानेवाले ज्ञानको ही प्रमाण कहा जा सकता है। यह प्रमाण दो भागोंमें विभक्त है -१ प्रत्यक्ष और २ परोक्ष । स्पष्ट ज्ञानको प्रत्यक्ष और अस्पष्ट ज्ञानको परोक्ष कहा गया है। यह ज्ञातव्य है कि अन्य ताकिकोंके द्वारा अभिमत अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव, प्रातिभ, ऐतिह्य आदि प्रमाणोंका अन्तर्भाव प्रमाणके दूसरे भेद
१. स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।'-परीक्षामु० १-१ । २. 'तद् द्वेधा,' 'प्रत्यक्षेतरभेदात्'-परीक्षामु० २-१,२ ।
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