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________________ प्राक्कथन बिना ही प्रमाणको व्यवस्था हो जाती है तो तत्त्वकी व्यवस्था भी स्वतः हो जाये, उसकी सिद्धिके लिए प्रमाणका मानना भी निरर्थक है ? इस प्रश्नका समाधान जैन दार्शनिकोंको दृष्टि में इस प्रकार है कि प्रमाणको प्रदीपकी तरह स्व-पर व्यवस्थापक माना गया है। जिस प्रकार प्रदीप अन्य पदार्थोका प्रकाशन करता हुआ अपना भी प्रकाशन करता है-उसके प्रकाशनके लिए प्रदीपान्तरको आवश्यकता नहीं होती उसी तरह प्रमाण भी प्रमेयको व्यवस्था करता हुआ अपना भी व्यवस्थापक है-उसकी व्यवस्था के लिए प्रमाणान्तरकी ज़रूरत नहीं होती। हाँ, प्रमाणके प्रामाण्यकी उत्पत्ति तथा ज्ञप्तिको लेकर दार्शनिकोंमें बहुत मतभेद है । कोई उसे स्वतः, कोई परतः और कोई स्वतः परतः स्वीकार करते हैं। किन्तु प्रामाण्यके अर्थाव्यभिचारित्वस्वरूपके विषयमें प्रायः सब एकमत हैं । प्रमाणने जिस अर्थको जाना है वह अर्थ यदि है तो वह प्रमाण है और यदि उसका जाना हुआ वह अर्थ उपलब्ध नहीं है तो वह अप्रमाण है। अतः प्रमाणके प्रामाण्यकी कसौटी उसका अर्थाव्यभिचारित्व है। इससे विदित है कि तत्त्वज्ञानका आधार एक मात्र प्रमाण है। प्रमाण-चर्चा: इस प्रमाणको चर्चा प्रत्येक दर्शनने की है। उसका स्वरूप क्या है ? उसके कितने भेद हैं ? उसका फल क्या है और विषय क्या है ? इन प्रश्नों पर सभीने विचार किया है और अपने अनुभव, तर्क तथा बुद्धिसे उनका निर्धारण किया है । इस विषयमें भारतीय दार्शनिकोंका परस्पर भारी मतभेद है। हम पहले कह आये हैं कि भारतीय दर्शन श्रुति और आचार्योंके अनुभव, तर्क एवं युक्ति इन आधारोंका अबलम्बन कर श्रौत दर्शन और तीर्थङ्करानुभवाश्रित दर्शन इन दो भागोंमें विभक्त हैं। इन दर्शनोंमें प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि, सम्भव और ऐतिह्य पर्यन्त प्रमाणोंकी संख्या मानी गयी है। इससे अधिक इङ्गितादि भी प्रमाणत्वेन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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