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प्राक्कथन
परोक्षमें ही हो जाता है क्योंकि ये सभी ज्ञान इन्द्रियादिकी सहायता लेकर उत्पन्न होनेके कारण अस्पष्ट है । इस परोक्ष प्रमाणमें ही स्मति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क-जैसे अन्य कितने ही प्रमाणोंका समावेश हो जाता है। वास्तवमें जैन दार्शनिकोंकी यह विशेषता है कि उन्होंने इतनी व्यापक, किन्तु अपने में सीमित परोक्ष-प्रमाणको परिभाषा बनायी कि उसमें इन्द्रियादि सापेक्ष सभी प्रमाण समा जाते हैं। इस परोक्ष प्रमाणके जैन विद्वानोंने पाँच भेद माने हैं-स्मति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । प्रत्यक्षके भी दो भेद हैं : १ सांव्यवहारिक और २ पारमार्थिक । इन्द्रिय और मनकी अपेक्षाकर होनेवाले एकदेश निर्मल ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। यह ज्ञान प्रवृत्ति और निवृत्तिरूप संव्यवहारका कारण होता है, इस लिए इसका नाम सांव्यवहारिक है । स्वल्प निर्मलता युक्त होनेसे यह ज्ञान प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। पर वास्तवमें इन्द्रियादिको सहायता सापेक्ष होनेसे यह सांव्यवहारिक ज्ञान परोक्ष ही है । दूसरा पारमार्थिक प्रत्यक्ष वह है जो इन्द्रियोंको सहायता रहित है, पूर्णतया निर्मल है और द्रव्य, क्षेत्र, कालादि सामग्रीको परिपूर्णतासे जिसके आवरण दूर हो गये हैं। ऐसा ज्ञान ही मुख्य प्रत्यक्ष या पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है। इस प्रकारका निःसोम प्रत्यक्षज्ञान, जिसमें कोई प्रतिबन्ध नहीं और न इन्द्रियोंकी सहायताको अपेक्षा होती है, त्रिकालदर्शी अर्हन्तोंको ही होता है। अंशतः व्यवहारदशामें वह योगियोंको भी होता है, पर वह विकलपारमार्थिक प्रत्यक्ष है। सकलपारमार्थिक प्रत्यक्ष केवल अर्हन्तोंको होता है। निष्कर्ष यह कि विशद ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है और दूसरे ज्ञानों या इन्द्रियादि सामग्रीकी सहायता लेकर होनेवाला ज्ञान परोक्ष ज्ञान व परोक्ष प्रमाण है। ये दोनों हो प्रमाण प्रदीपकी तरह स्वपरप्रकाशक हैं और अज्ञानके निवर्तक एवं हेयोपादेयोपेक्षाबुद्धिके जनक होनेसे सफल हैं तथा प्रमेयार्थके निश्चायक हैं। जैनदर्शनमें जहाँ विस्तारपूर्वक प्रमाणका निरूपण किया गया है वहाँ उसके विषयका भी विशद विवेचन उपलब्ध होता है।
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