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________________ प्राक्कथन दर्शन जैन दर्शन है । इन तत्त्वदर्शी अर्हन्तोंमें कणादादि जैसे तत्त्वदर्शियोंकी अपेक्षा यह विशेषता पायी जाती है कि सभी अर्हन्तोंके तत्त्वज्ञान और तत्त्वोपदेश में कोई मतभेद नहीं होता । जब कि इतर दार्शनिकों और दर्शनप्रवर्तकों में वह देखा जाता है । उदाहरण के लिए जीवको कोई अणु मानते हैं तो कोई विभु स्वीकार करते हैं । कोई ( वेदान्तादि ) आत्माको ज्ञानस्वरूप प्रतिपादन करते हैं तो कोई नैयायिकादि उसे समवायसे ज्ञानगुणवाला बतलाते हैं । पर, जैन तत्त्वोपदेष्टाओंके सिद्धान्तों में कोई अन्तर नहीं पाया जाता । हाँ, आचारकी अपेक्षा उनके अवान्तर श्वेताम्बरादि सम्प्रदायोंमें वह कुछ देखा जाता है । किन्तु वह दार्शनिक भेद नहीं हैं । केवल आगमानुसार आचार - प्रणालीका भेद है । दार्शनिक दृष्टिसे जीव, कर्मपुद्गल, बन्ध, मोक्ष, सृष्टि, पदार्थ संख्या, प्रमाणसंख्या, सादिमुक्त ईश्वरवाद, अनेकान्त, स्याद्वाद, सप्तभङ्गीवाद आदि सिद्धान्तोंके बारेमें कोई तात्त्विक भेद उनमें नहीं है । इसी तरह सूक्ष्म पदार्थोके विषय में भी सभी अर्हन्तोंकी एक ही तात्त्विक प्ररूपणा है । इस विवेचनसे प्रकट है कि जैनदर्शन नास्तिक दर्शन नहीं है । २३ दर्शनोंके आस्तिक और नास्तिक भेदके विषय में यहाँ तक जो विचार व्यक्त किया है उससे स्पष्ट है कि आस्तिक और नास्तिकके भेदका कोई ऐसा आधार उपलब्ध नहीं है जो युक्ति तथा प्रमाणसे सिद्ध हो और सर्व Jain Education International अर्हन् या जिन एक ही स्थिति के होते हैं । इस कारण किसी भी सर्वज्ञअर्हन्- द्वारा कहा गया आगम जैन आगम या जैन दर्शन या आर्हत दर्शन कहा जाता है । यह स्मरणीय है कि जो अर्हन्त तीर्थङ्कर कर्मके कारण संसारके लिए कल्याणका उपदेश देते हैं वे तीर्थङ्कर कहे जाते हैं । सभी अर्हन् तीर्थङ्कर हों, ऐसी बात नहीं है और इसलिए ऐसे तत्वोपदेश तीर्थङ्कर प्रत्येक काल ( बसर्पिणी और उत्सर्पिणी ) में २४ ही होते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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