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________________ प्रमाणप्रमेयकलिका कर जगत्को सम्यग्दर्शन, सभ्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रके त्रिरत्न-मार्गसे लोकाकाश पर्यन्त निःश्रेयस (मोक्ष) में पहुँचानेका प्रशस्त प्रयत्न किया । उक्त मार्गकी अनेक सोपानोंमें एक सुन्दर सोपान यह 'अहिंसा परमो धर्मः' का उपदेश भी है। यद्यपि भारतीय दर्शनोंकी परम्परा अनादि कालसे प्रवाहित है तथापि ज्ञान-तत्त्वके उपदेशक जिन महामनीषियोंने अनादि परम्परा प्रचलित जिस मार्ग व तत्त्वोंको तर्ककी कसौटीपर परखकर अनुभवसे उनके असन्दिग्ध स्वरूपका निर्णय किया तथा दुःखदवाग्निसे सन्तप्त पामर-प्राणियोंको मोक्षात्मक-शान्तिपद प्राप्त करके लिए जो आगमोपदेश दिया वह उन रत्नत्रयादि आचारनिष्ठ लौकिक व्यवहारातीत एवं जीवन्मुक्तकी स्थितिको प्राप्त हुए तीर्थङ्करोंके नामसे प्रसिद्ध हुआ। जैसे महर्षि कपिलप्रोक्त कापिल या सांख्यदर्शन, कणादकथित काणाददर्शन, पतञ्जलिप्रोक्त पातञ्जलदर्शन, अक्षपाद गौतम प्रतिपादित गौतमदर्शन कहे गये और इन नामोंसे वे प्रसिद्ध हुए। इसी तरह अर्हन् या जिनके द्वारा प्ररूपित १. 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" -तत्त्वार्थस्०१-१ । २. जैन परिभाषाके अनुसार अर्हन् या जिन कोई नित्य-सिद्ध, अनादि मुक्त एक परमात्मा नहीं है। किन्तु मोक्षमार्गका उपदेशक, सर्वज्ञ और कर्मभूमृतोंका भेत्ता सादिमुक्त आत्मा ही परमान्मा है। ऐसे आत्मा ही मुक्ति और मुक्तिमार्गका उपदेश देते हैं। ये जीवन्मुक्त-जैसी दशामें स्थित होते हैं । रागादि दोषोंके क्षीण हो जानेके कारण 'वीतराग', भूत, भविष्यद् और वर्तमान तथा सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोंको साक्षात्कार करनेसे 'सर्वज्ञ', सबके पूजनीय होनेसे 'अर्हन्', मननशील होनेसे 'मुनि', कामविजयी होनेसे 'जिन' और आगमका उपदेश करने से 'तीर्थङ्कर' आदि शब्दोंसे अत्यात होते हैं। ऐसे अर्हन् मुनियोंके साक्षात्कार और तत्त्वज्ञानमें भेद नहीं होता। इस श्रेणीमें प्रविष्ट समी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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