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________________ प्राक्कथन करना हो नहीं है, अपितु मन, वचन और शरीरसे परपीडन ही हिंसा है, ऐसा शास्त्रकारोंका स्पष्ट अभिप्राय जाना जाता है। यही कारण है कि जैन-धर्मके तत्त्वोपदेष्टाओंने हिंसाको श्रेयका अवरोधक और अनिष्टका कारण समझकर उसका विरोध करते हुए सब धर्मोके सारभूत 'अहिंसा परमो धर्मः' का सदुपदेश दिया। जिस प्रकार अद्वैत वेदान्तियोंके 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' इस अल्पपरिमाणवाले वेदान्तमहावाक्यार्थमें समस्त वेदान्त का तात्पर्य निहित है उसी प्रकार जैन तीर्थङ्करोंसे अत्यादृत 'अहिंसा परमो धर्मः' इस लघुकाय वाक्यार्थमें यावद्धर्मोका समावेश हो जाता है। इस अध्यात्म अहिंसा धर्मको न समझनेके कारण आज भौतिक विज्ञानकी चरम सीमा तक पहुँचे हुए तथा चन्द्र लोकान्त उड़ानके अव्यर्थ आशावादी कतिपय पश्चिमी राष्ट्रोंमें अशान्तिको अग्नि धधक रही है। केवल एक अहिंसावादी भारत ऐसा राष्ट्र ही पञ्चशीलके सिद्धान्तानुसार परस्पर शान्तिसे रहनेकी घोषणा कर रहा है। दासताकी कठोर बेडीसे निगडित भारतराष्ट्र के स्वातन्त्र्यके लिए महात्मा गांधीने भी इस अमोघ अहिंसाअस्त्रको उठानेका उपदेश दिया था, जिसका सुखद परिणाम सबके सम्मुख है। इस अहिंसा धर्मके विषयमें बहुत कुछ कहा जा सकता है। पर यहाँ इसपर अधिक कहना एक प्रकरणान्तर हो जायगा । यहाँ इसपर चर्चा करनेका इतना ही अभिप्राय है कि प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवसे लेकर चौबीसवें तीर्थंकर महावीरपर्यन्त जैन तत्त्वद्रष्टाओंने किस प्रकार अनुभव और मननपूर्वक अहिंसा, अनेकान्त-जैसे उदात्त सिद्धान्तोंका अवलोकन संरम्भ समारम्भ आरम्भ, मन वचन तन कीने प्रारम्भ । कृत कारित मोदन करिके, क्रोधादि चतुष्टय धरिके ॥ शत आठ जु इन भेदन तैं, अघ कीने परछेदन तैं । संरम्भ-समारम्भ-प्रारम्भ - मन-वचन-काय - कृत-कारित-अनुमोदना x क्रोध-मान-माया-लोभ = ३ x ३४३४४ = १०८ हिंसाभेद । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
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