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प्रमाणप्रमेयकलिका
इस अहिंसा धर्मका ही निर्देश किया है। इस अहिंसाव्रतको अपनाये बिना अन्य सत्य, अस्तेयादि अङ्गोंकी सिद्धि नहीं हो सकती, इस बातको भी उक्त सूत्रके व्यास-भाष्यमें स्पष्ट कर दिया है। अहिंसा-विजयीके विषयमें महर्षि पतञ्जलि कहते हैं कि अहिंसामें प्रतिष्ठित योगोके निकट सभी विरोधी प्राणियोंका परस्पर वैरत्याग हो जाता है । स्थूल विचारसे जिस किसी एक जीवके वधको एक हिंसा कहा जाता है। किन्तु शास्त्र में एक ही जीवकी हिंसाके सूक्ष्मदृष्टि से ८१ भेद बतलाये गये हैं । जैन-धर्म में इससे भी ज्यादा सूक्ष्मतासे हिंसाका विचार किया गया है और उसके १०८ और असंख्य भेद गिनाये गये हैं । यथार्थमें हिंसाका अर्थ केवल हनन
१. 'अपरे च यमनियमास्तन्मूलास्तत्सिद्धिपरतयैव तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते ।'
-व्यासभाष्य योगसू० २-३ २. 'अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ।'
-~-योगसू० २-३५ ३. 'वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोध-मोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्ष भावनम् ।'
योगसू० २-३४ 'तत्र हिंसा तावत्--कृता कारिताऽनुमोदितेति त्रिधा । एकैका पुनस्त्रिधा। लोभेन मांसचर्मार्थेन क्रोधेनावकृतमनेनेति मोहेन धर्मो मे भविष्यतीति । लोभक्रोधमोहाः पुनस्त्रिविधा मृदुमध्याधिमात्रा इति । एवं सप्तविंशतिमैदा भवन्ति हिंसायाः। मृदुमध्याधिमात्राः पुनस्त्रिधामृदुमृदुर्मध्यमृदुस्तीव्रमृदुरिति । तथा मृदुमध्यो मध्यमध्यस्तीवमध्य इति । तथा मृदुतीब्रो मध्यतीब्रोऽधिमात्रतीव्र इति । एवमेकाशीतिभेदा हिंसा मवति ।'
-व्यासभाध्य २-३४ ४. देखिए , तत्त्वार्थसूत्रकी टीका सर्वार्थसिद्धि ६-८ । आलोचनापाठगत निम्न पद्य:
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