SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकथन यह निश्चित है कि जैन दर्शन अनेक भागोंमें विभक्त भारतीय दर्शनदिनमणिकी ही एक अनुपम देदीप्यमान विज्ञान-ज्योति है। इस दर्शनको निजी अनादि परम्परा है और इसमें तत्त्वोंका विचार बड़ी गम्भीरता तथा सूक्ष्मताको लिये हुए अनुभव और मननके साथ किया गया है । इसके तात्त्विक सिद्धान्त आधुनिक या मध्यकालिक नहीं हैं, प्रत्युत युक्ति, प्रमाण और अनुभवारूढ होकर अनादि परम्परासे अवतरित हैं तथा अज्ञानान्धकारको दूरकर जगत्को ज्ञानका दिव्य सन्देश देते हुए चले आ रहे हैं । यदि इस दर्शनके सिद्धान्त जगत्में सतत प्रवाहित न होते तो वेदान्त दर्शनके 'नैकस्मिन्नसम्भवात्' (वे० द० २-२-३३ ) इत्यादि सूत्रोंमें जैन दर्शनके प्राणभूत अनेकान्तवाद, सप्तभङ्गीवाद आदि सिद्धान्तोंकी चर्चा न होती। यही कारण है कि ऋषभदेव-जैसे तत्त्वोपदेष्टाओंका उल्लेख भागवत आदि वैदिक पुराणोंमें पाया जाता है। प्रकरणवशात् इसके दार्शनिक सिद्धान्तोंकी भी चर्चा वैदिक पद्मपुराणादि ग्रन्थोंमें देखनेमें आती है। इतना ही नहीं, किन्तु जैन धर्मके सारभूत 'अहिंसा' धर्मका संकीर्तन महाभारतमें यत्र-तत्र देखनेमें आता है । पूर्वोल्लिखित श्लोकमें जैन-धर्मकी अहिंसाकी ही छाप स्पष्ट है । महाभारतमें एक स्थलपर पितामह भीष्म धर्मराज युधिष्ठिरको उपदेश देते हुए अहिंसाकी मुक्तकण्ठसे प्रशंसा करते हैं और उसे परम धर्म, परम तप तथा परम सत्य बतलाते हैं । महर्षि पतञ्जलिने भी योगसूत्र में योगके साधनीभूत यम-नियमादिमें सर्वप्रथम १. देखिए, 'नैकस्मिन्नसम्भवात्' ( २-२-३३ ) इस सूत्रका भाष्य पृ० ४८० । २. अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परमं तपः। अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते ॥ __ --महाभा० अनुशा० ५०, ११५ अ०, २३ श्लोक ३. 'अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।' --योगसू० २-३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001146
Book TitlePramanprameykalika
Original Sutra AuthorNarendrasen Maharaj
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages160
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy