________________
प्रमाणप्रमेयकलिका
7
भाष्य में प्रकट किया गया है । वहाँ कहा गया है कि वैशेषिक सिद्धान्त कुयुक्तियोंसे युक्त है, वेदविरुद्ध है और शिष्टों द्वारा अस्वीकृत है । अतः वह आदरणीय नहीं है । इस विवेचनसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आस्तिक और नास्तिककी उक्त परिभाषा स्वीकार करने पर न्याय और वैशेषिक दर्शन भी, जिन्हें आस्तिकदर्शन माना जाता है, प्रायानुसार नास्तिक दर्शन माने जायेंगे ।
आचार्य शङ्करके अभि
१८
अगर यह कहा जाय कि जो ईश्वर तत्त्वको मानता है वह आस्तिक दर्शन है और जो उसे नहीं मानता वह नास्तिक दर्शन है तो यह परिभाषा भी ठीक नहीं है, क्योंकि आस्तिक दर्शनत्वेन अभिमत कापिल-सांख्य और मीमांसा दर्शन भी नास्तिक दर्शन कहे जायेंगे, क्योंकि इनमें वेदको प्रमाण माननेपर भी ईश्वर तत्त्व स्वीकृत नहीं है । इसके अतिरिक्त जिस प्रकार आचार्य शङ्करने वैशेषिकादि दर्शनोंको प्रकारान्तरेण अवैदिक कहा है उसी तर सांख्य विद्वान् विज्ञानभिक्षुने उन्हें प्रच्छन्न बौद्ध, वेदान्तिव आदि हीन शब्दोंसे स्मरण किया है । इसके विपरीत वेदान्तादि दर्शनोंमें जहाँ जैनादि दर्शनोंके सिद्धान्तका खण्डन किया है वहाँ ' इति नास्तिकदार्शनिकाः' इत्यादिरूपसे कहीं भी उल्लेख देखने में नहीं आता । यहाँ तक कि 'तदपरे' 'इत्येके' जैसे परमत सूचक शब्दों तकका भी प्रयोग उपलब्ध नहीं होता । केवल अन्य दार्शनिकोंका सिद्धान्त दिखाकर खण्डन किया है । जैसा कि इसी शाङ्करभाष्य में जैनदर्शनके खण्डनके प्रारम्भ में 'विवसनसमय इदानीं निरस्यते' ऐसा कहकर ही उसका निरास किया गया है । यहाँ 'यह नास्तिक दर्शनका सिद्धान्त है' ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय दर्शनोंको आस्तिक और नास्तिक इन दो विभागों में विभक्त करनेवाला कोई भी सर्वमान्य एवं अबाधित मापदण्ड नहीं है ।
१. 'वैशेषिकराद्धान्तो दुर्युक्तियोगाद्वेदविरोधाच्छिष्टापरिग्रहाच नापेक्षितव्य इत्युक्तम् ।' -- वेदान्तसू० शा० भा० २ २ १८, पृ० ४४९ । २. देखिए, सांख्यप्रवचनभाष्य' I
Jain Education International
......
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org