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प्राकथन
चरित है, क्योंकि न्यायादि जिन दर्शनोंको वेदानुयायी होनेसे आस्तिक दर्शन कहा जाता है, आचार्य शङ्करको दृष्टिमें वे वैदिक दर्शनकी कोटिमें प्रविष्ट नहीं हैं । आचार्य शङ्कर अपने वेदान्त दर्शन ( २-२ - ३७ ) में स्पष्ट कहते हैं कि' 'वेदबाह्य ईश्वरको कल्पना अनेक प्रकारकी है। उनमें सेश्वरवादी सांख्य जगत्का उपादान - कारण प्रकृतिको मानते हैं और निमित्त कारण ईश्वरको । कुछ वैशेषिकादि भी अपनी प्रक्रिया के अनुसार ईश्वर को निमित्तकारण कहते हैं।' इससे प्रकट है कि आचार्य शङ्कर एक ही ईश्वरको उपादान और निमित्त दोनों माननेवाले दर्शनको ही वैदिकदर्शन कह रहे हैं और उससे अन्यथावादी दर्शनको अवैदिक दर्शन बतला रहे हैं । यहाँ भाष्यकी रत्नप्रभा आदि टीकाओंके रचयिताओंने स्पष्ट ही नैयायिकों तथा जैनोंको 'सम्प्रदानादि भावोंका ज्ञाता कर्मफल देता है' ऐसा समान सिद्धान्तवादी कहा है । इतना ही नहीं, किन्तु वहाँ एक दूसरी बात और कही है । वह यह कि किन्हीं भी शिष्टों द्वारा अंशतः स्वीकृत न होनेके कारण न्याय-वैशेषिकोंका परमाणुकारणवाद - सिद्धान्त वेदवादियोंसे अत्यन्त उपेक्षणीय है । यही आशय स्थलान्तर में भी शाङ्कर
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१७.
१. 'सा चेयं वेदबाह्येश्वरकल्पनाऽनेकप्रकारा । केचित्सांख्ययोगव्यपाश्रयाः कल्पयन्ति प्रधानपुरुषयोरधिष्ठाता केवलं निमित्तकारणमीश्वर इतरेतरविलक्षणा: प्रधानपुरुषेश्वरा इति । तथा वैशेषिकादयोऽपि केचित्कथंचित्स्वप्रक्रियानुसारेण निमित्तकारणमीश्वर इति वर्णयन्ति । '
२. (क) 'कर्मफलं सपरिकराभिज्ञदातृकं कर्मफलत्वात्, सेवाफलवदिति गौतमा दिगम्बराश्च । ' - - भाष्यरत्नप्रभा टी० २-२-३७, पृ० ४८८ । (ख) कर्मफलं सम्प्रदानाद्यभिज्ञप्रदातृकं कर्मफलत्वात्, सेवाफलवदिति नैयायिक - दिगम्बरौ । ' - - न्यायनिर्णय टी० २-२-३७, पृ० ४८८ । ३. 'अयं तु परमाणुकारणवादो न कैश्चिदपि शिष्टैः केनचिदप्यंशेन परिगृहीत इत्यत्यन्तमेवानादरणीयो वेदवादिभिः ।
-- वेदान्तसू० २-२-१७, पृ० ४४३ ।
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