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द्वितीयः समुद्देशः हि गृहीतसम्बन्धस्यैक देशदर्शनादसन्निकृष्टे बुद्धिः । न च सर्वज्ञसद्भावाविनाभाविकार्यलिङ्ग स्वभावलिङ्ग वा सम्पश्यामः; तज्ज्ञप्तेः पूर्व तत्स्वभावस्य तत्कार्यस्य वा तत्सद्भावाविनाभाविनो निश्चेतुमशक्तेः। नाप्यागमात्तत्सद्भावः, । स हि नित्योऽनित्यो तत्सद्भावं भावयेत् ? न तावन्नित्यः, तस्यार्थवादरूपस्य कर्मविशेषसंस्तवनपरत्वेन पुरुषविशेषावबोधकत्वायोगात् । अनादेरागमस्यादिमत्पुरुषवाचकत्वाघटनाच्च । नाप्यनित्य आगमः सर्वज्ञं साधयति, तस्यापि तत्प्रणीतस्य तन्निश्चयमन्तरेण प्रामाण्यानिश्चयादितरेतराश्रयत्वाच्च । इतरप्रणीतस्य' त्वनासादित प्रमाणभावस्याशेषज्ञप्ररूपणपरत्वं नितरामसम्भाव्यमिति । सर्वज्ञसदृशस्यापरस्य ग्रहणासम्भ
असन्निकृष्ट (दूरवर्ती ) पदार्थ में जो बुद्धि होती है, उसे अनुमान कहते हैं । सर्वज्ञ के सद्भाव का अविनाभावी कार्यलिङ्ग अथवा ( अक्षादि) स्वभावलिङ्ग भी नहीं देखते हैं, क्योंकि सर्वज्ञ के ज्ञान के पूर्व उसके सद्भाव का अविनाभावी सर्वज्ञ का और उसके कार्य का निश्चय नहीं किया जा सकता । आगम से भो सर्वज्ञ का सद्भाव नहीं सिद्ध किया जा सकता है। वह ( वेदरूप ) नित्य आगम सर्वज्ञ को बतलाता है या (स्मति आदि) अनित्य आगम सर्वज्ञ को बतलाता है ? नित्य आगम तो बतला नहीं सकता, क्योंकि वह ( याग प्रशंसावादस्तुतिनिन्दा रूप ) अर्थवाद युक्त है, ( यज्ञादि ) कर्म विशेषों का संस्तवन करने वाला है, अतः उसके द्वारा सर्वज्ञ रूप किसी पुरुषविशेष के सद्भाव का ज्ञान होने का योग नहीं है। अनादि आगमका आदिमान् पुरुष का वाचक होना घटित नहीं होता है । अनित्य आगम भी सवंज्ञ की सिद्धि नहीं करता है। (अनित्य आगम सर्वज्ञ को यदि सिद्ध करता है तो वह सर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत है या किसी अन्य के द्वारा, इस प्रकार दो विकल्प मन में रखकर दोष उपस्थित करते हैं ) । अनित्य आगम का निश्चय उसके प्रणेता के निश्चय के बिना नहीं हो सकता, इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष आता है। तात्पर्य यह कि सर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत होना सिद्ध होने पर आगम प्रामाण्य की सिद्धि हो और प्रामाण्य का निश्चय होने पर सर्वज्ञ की सिद्धि हो, इस प्रकार इतरेतराश्रय दोष आता है। यदि असर्वज्ञ के द्वारा प्रणीत आगम सर्वज्ञ को सिद्ध करे तो जिसे प्रमाणता प्राप्त नहीं है, ऐसे आगम को सर्वज्ञ का निरूपण करने वाला मानना असम्भव है। सर्वज्ञ के सदृश अन्य किसी व्यक्ति
१. असर्वज्ञप्रणीतस्य । २. अप्राप्त ।
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