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प्रमेयरत्नमालायां वाच्च नोपमानम् । अनन्यथाभूतस्यार्थस्याभावान्नार्थापत्तिरपि सर्वज्ञावबोधिकेति धर्माद्य पदेशस्य व्यामोहादपि सम्भवात् । द्विविधो ह्य पदेशः--सम्यमिथ्योपदेशभेदात् । तत्र मन्वादीनां सम्यगुपदेशो यथार्थज्ञानोदयवेदमूलत्वात् । बुद्धादीनां तु व्यामोहपूर्वकः, तदमूलत्वात् तेषामवेदार्थज्ञत्वात् । ततः प्रमाणपञ्चकाविषयत्वादभावप्रमाणस्यैव प्रवृत्तिस्तेन चाभाव एव ज्ञायते; भावांशे प्रत्यक्षादिप्रमाणपञ्चकस्य व्यापारादिति ।
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का ग्रहण असम्भव होने से उपमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होती। तात्पर्य है कि सर्वज्ञ के समान यदि कोई वर्तमान समय में दिखाई दे तो हम उपमान से सर्वज्ञ को जानें । अनन्यथाभूत अर्थ के अभाव से अर्थापत्ति भी सर्वज्ञ की बोधिका नहीं है, क्योंकि धर्मादि का उपदेश व्यामोह से भी संभव है । अर्थात् अनुपपद्यमान अर्थ को देखकर उसके उपपादक अर्थ को कल्पना करना जयापत्ति कहलाती है। जैसे कि देवदत्त दिन में नहीं खाता है, परन्तु मोटा है, ऐसा देखने या सुनने पर ( उसके ) रात्रिभोजन की कल्पना कर ली जाती है ( क्योंकि ) दिन में न खाने वाले का मोटा होना रात्रिभोजन के बिना नहीं बन सकता है । इसलिए अन्यथा (अर्थात् रात्रिभोजन के बिना) पीनत्व की अनुपपत्ति ही ( उसके ) रात्रिभोजन में प्रमाण होती है और वह (अर्थापत्ति) प्रमाण रात्रिभोजन के प्रत्यक्षादि का. विषय न होने से प्रत्यक्षादि से भिन्न अलग हो प्रमाण है, ऐसा अर्थापत्ति प्रमाण मानने वाले कहते हैं )।
उपदेश दो प्रकार का है। १-सम्यक उपदेश और २-मिथ्या उपदेश । उनमें से मन्वादि का उपदेश सम्यक् उपदेश है; क्योंकि उनके वेदमूलक यथार्थ ज्ञान का उदय पाया जाता है । बुद्ध आदि का उपदेश व्यामोहपूर्वक है क्योंकि वह वेदमूलक नहीं है। बुद्ध आदि वेद के अर्थ का ज्ञाता नहीं है । अतः पाँच प्रमाणों का विषय न होने से अभाव प्रमाण की ही प्रवृत्ति होती है, उससे अभाव हो जाना जाता है। ( वस्तु के सद्भाव को ग्रहण करके और प्रतियोगी का भी स्मरण करके मानस नास्तिता ज्ञान होता है, जिसमें इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं होती है। जहाँ पर पाँच प्रमाणों के द्वारा वस्तुरूप का ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है, वहाँ पर वस्तु की असत्ता के वोध के लिए अभाव प्रमाणता होता है। इन्द्रिय के द्वारा 'नहीं है', इस प्रकार की बुद्धि उत्पन्न नहीं होती है, इन्द्रिय में भावांश को जानने की ही योग्यता है । अभाव प्रमाण की प्रत्यक्षादि से उत्पत्ति नहीं होती है । ) भावांश में ही पाँच प्रमाणों का व्यापार होता है ।
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