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प्रमेयरत्नमालायां चेदतीन्द्रियत्वमनावरणत्वं चेति ब्रूमः । एतदपि कुतः ? इत्याहसावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसम्भवात् ॥ १२ ॥
नन्ववधि-मनःपर्ययोरनेनासङ्ग्रहादव्यापकमेतल्लक्षणमिति न वाच्यम्; तयोरपि स्वविषयेऽशेषतो विशदत्वादिधर्मसम्भवात् । न चैवं मति-श्रुतयोरित्य तिव्याप्तिपरिहारः। तदेतदतीन्द्रियमवधि-मनःपर्यय-केवलप्रभेदात् त्रिविधमपि मुख्यं प्रत्यक्षमात्मसन्निधिमात्रापेक्षत्वादिति ।।
नन्वशेषविषयविशदावभासिज्ञानस्य तद्वतो वा प्रत्यक्षादिप्रमाणपत्र काविषयत्वेनाभावप्रमाणविषमविषधरविध्वस्तसत्ताकत्वात् कस्य मुख्यत्वम् ? तथाहि - नाध्यक्षमशेषज्ञविषयम्, तस्य रूपादिनियतगोचरचारित्वात् सम्बद्धवर्तमानविषयत्वाच्च । न चाशेषवेदी सम्बद्धो वर्तमानश्चेति । नाप्यनुमानात्तत्सिद्धिः । अनुमानं
बन्ध के अभाव में भी क्या कारण है ? अतीन्द्रियता और निवारणता कारण है, ऐसा हम कहते है। यह भी क्यों ? इसके विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-आवरण सहित और इन्द्रिय जनित मानने पर ज्ञान का प्रतिबन्ध सम्भव है ।। १२ ॥ ___ शङ्का-इस सूत्र से अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान का संग्रह नहीं होता, अतः यह लक्षण अव्यापक है।
समाधान-ऐसा नहीं कहना चाहिए। अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान के भी अपने विषय में सम्पूर्ण रूप से विशदत्वा द धर्म सम्भव हैं। चूँकि मति और श्रुत में ऐसा नहीं है अतः अतिव्याप्ति दोष का निराकरण हो जाता है। इस प्रकार यह अतीन्द्रिय मुख्य प्रत्यक्ष अवधि, मनःपर्यय और केवल के भेद से तीन प्रकार का होने पर भी मुख्य प्रत्यक्ष आत्मा को सन्निधि मात्र की अपेक्षा से होता है।
शङ्का-सम्पूर्ण विषयों को विशद रूप से अवभासित कराने वाला ज्ञान अथवा उस प्रकार का ज्ञानवान् पुरुष चूंकि प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाणों का विषय नहीं है और अभाव प्रमाण विषम विषधर सर्प के समान उसकी सत्ता को विध्वस्त करता है, अतः किसके मुख्यपना है ? इसी बात को स्पष्ट करते हैं-प्रत्यक्ष प्रमाण तो अशेषज्ञ ( सर्वज्ञ ) को विषय नहीं करता है, क्योंकि प्रत्यक्ष तो रूपादि नियत विषयों को हो विषय करता है तथा उसका विषय सम्बद्ध और वर्तमान है। सर्वज्ञ सम्बद्ध और वर्तमान नहीं है। अनुमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि नहीं होती है। साध्य-साधन के सम्बन्ध को जिसने ग्रहण किया है ऐसे पुरुष के ही एकदेश धुयें के देखने से
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