________________
प्रमेयरत्नमालायां उक्तन्यायेन स्मृति-प्रत्यभिज्ञान-तर्काणां तदभ्युपगतप्रमाणसङ्ख्यापरिपन्थित्वादिाता. प्रत्यक्षेतरभेदाद् द्वे एव प्रमाणे इति स्थितम् । अथेदानी प्रथमप्रमाणभेदस्य स्वरूपं निरूपयितुमाह
विशदं प्रत्यक्षम् ॥ ३ ॥ ज्ञानमित्यनुवर्तते । प्रत्यक्षमिति धमिनिर्देशः । विशदज्ञानात्मकं साध्यम् । प्रत्यक्षत्वादिति हेतुः । तथाहि-प्रत्यक्ष विशदज्ञानात्मकमेव, प्रत्यक्षत्वात् । यन्न विशदज्ञानात्मकं तन्न प्रत्यक्षम्, यथा परोक्षम् । प्रत्यक्षं च विवादापन्नम् । तस्माद्विशदज्ञानात्मकमिति । प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धो हेतुरिति चेत् का पुनः प्रतिज्ञा तदेकदेशो वा ? धर्मि धर्मसमुदायः प्रतिज्ञा । तदेकदेशो धर्मो धर्मी वा ? हेतुः प्रतिज्ञार्थकदेशासिद्ध इति चेन्न, धर्मिणो हेतुत्वे असिद्धत्वायोगात् । तस्य पक्षप्रयोगकालवद्धतुप्रयोगेऽप्यसिद्धत्वायोगात् ।
ऐसा प्रतिपादित समझना चाहिए । उक्त न्याय से स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्कप्रमाण सांख्यादि के द्वारा मानी गई प्रमाण संख्या के विरोधी हैं। इस प्रकार यह बात सिद्ध हुई कि प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो ही प्रमाण हैं। __अब इस समय प्रमाण के प्रथम भेद प्रत्यक्ष का स्वरूप निरूपण करने. के लिए कहते हैं। । सूत्रार्थ-विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं।३ ॥
इस सूत्र में ज्ञान पद की अनुवृत्ति होती है। प्रत्यक्ष यह धर्मी का. निर्देश है (साध्य धर्म का आधार रूप धर्मी पक्ष है)। विशद ज्ञानात्मकता साध्य है, प्रत्यक्षत्वात् यह हेतु है। इसी बात को स्पष्ट करते हैं-प्रत्यक्ष विशदज्ञानात्मक ही होता है। क्योंकि वह प्रत्यक्ष है। जो विशदज्ञानात्मक नहीं होता है, वह प्रत्यक्ष नहीं होता है, जैसे परोक्ष । और प्रत्यक्ष विवादापन्न है, इसलिए वह विशद ज्ञानात्मक है।
शङ्का-यहाँ हेतु प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्ध है । प्रतिशङ्का-प्रतिज्ञा क्या है और उसका एकदेश क्या है ?
समाधान-धर्म ( साध्य ) और धर्मी ( पक्ष ) का समुदाय प्रतिज्ञा है। उसका एकदेश धर्म अथवा धर्मी है। उनमें से एक को हेतु बनाने पर वह प्रतिज्ञार्थंकदेशसिद्ध हेत्वाभास हो जाता है ।
प्रतिसमाधान-यह बात ठीक नहीं है। धर्मी को हेतु बनाने पर असिद्धपना नहीं प्राप्त होता है। पक्षप्रयोग काल में धर्मी के जैसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org