________________
द्वितीयः समुद्देशः एतेन प्रत्यक्षफलेनोहापोहविकल्पज्ञानेन व्याप्तिप्रतिपत्तिरित्यप्यपास्तम् । प्रत्यक्षफलस्यापि प्रत्यक्षानुमानयोरन्यतरत्वे व्याप्तेरविषयोकरणात् तदन्यत्वे च प्रमाणान्तरत्वमनिवार्यमिति ।
अथ व्याप्तिविकल्पस्य फलत्वान्न प्रामाण्यमिति न युक्तम्; फलस्याप्यनुमानलक्षणफलहेतुतया प्रमाणत्वाविरोधात् । तथा सन्निकर्षफलस्यापि विशेषणज्ञानस्य विशेषज्ञानलक्षणफलापेक्षया प्रमाणत्वमिति न वैशेषिकाभ्युपगतोहापोहविकल्पः प्रमाणान्तरत्वमतिवर्तते ।
एतेन त्रि-चतुः-पञ्च षट्प्रमाणवादिनोऽपि साङ्ख्याक्षपाद-प्रभाकर-जैमिनीयाः स्वप्रमाणसङ्ख्यां न व्यवस्थापयितु क्षमा इति प्रतिपादितमवगन्तव्यम् । तथा उनसे उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनुमान नहीं है, अतः प्रत्यक्ष और अनुमान से व्याप्ति के ग्रहण करने के पक्ष में जो दोष प्राप्त होते थे, उनकी प्राप्ति का प्रसंग उपस्थित होता है।
अनुपलम्भ आदि के द्वारा व्याप्ति के ग्रहण में प्रत्यक्ष और अनुमान . पक्ष में उपक्षिप्त दोष के दर्शन से प्रत्यक्ष के फल (पूर्व पूर्व प्रमाण होने पर उत्तर उत्तर फल होता है ) रूप ऊहापोह विकल्प ज्ञान के द्वारा व्याप्ति की जानकारी होती है, इस प्रकार कहने वाले वैशेषिकों के मत का भी खण्डन हो जाता है। प्रत्यक्ष के फल को प्रत्यक्ष और अनुमान में से किसी एक रूप मानने पर उनके द्वारा व्याप्ति विषय नहीं की जा सकती। प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न मानने पर भिन्न प्रमाण मानना अनिवार्य है।
नैयायिक-व्याप्ति का ग्राहक तर्क फल होने के कारण प्रामाण्य नहीं है।
जैन--यह ठीक नहीं है। फल रूप होते हुए भी वह अनुमान का हेतु है और अनुमान उसका फल है, अतः उसे प्रमाण मानने में विरोध नहीं है तथा (इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध रूप) सन्निकर्ष के फल रूप भो विशेषण के ज्ञान को विशेष्य ज्ञान के लक्षणरूप फल की अपेक्षा प्रमाण मानने पर वैशेषिकों के द्वारा माना गया ऊहापोह विकल्प रूप ज्ञान भी तर्क ज्ञान रूप अन्य प्रमाण का उल्लंघन नहीं करता है (निराकरण नहीं करता है)।
बौद्ध की प्रमाणसंख्याप्रतिपादन की असामर्थ्य के समर्थन द्वारा तीन, चार, पाँच, छह प्रमाण कहने वाले सांख्य, अक्षपाद, प्रभाकर और जैमिनीय अपनी प्रमाण को संख्या को व्यवस्थापित करने में समर्थ नहीं हैं, १. इन्द्रियार्थयोः सम्बन्धः सन्निकर्षः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org