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________________ द्वितीयः समुद्देशः धर्मिणो हेतुत्वे अनन्वय दोष इति चेन्न; विशेषस्य धर्मित्वात्, सामान्यस्य च हेतुत्वात । तस्य च विशेषेष्वनुगमो विशेषनिष्ठत्वात्सामान्यस्य । ____ अथ साध्यधर्मस्य' हेतुत्वे प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्धत्वमिति । तदप्यसम्मतम्, साध्यस्य स्वरूपेणैवासिद्धत्वान्न प्रतिज्ञार्थंकदेशत्वेन तस्यासिद्धत्वम्, धर्मिणा व्यभिचारात् । __सपक्षे वृत्यभावाद्धतोरनन्वय इत्यप्यसत, सर्वभावानां क्षणभङ्गसङ्गममेवाङ्गशृङ्गारमङ्गीकुर्वतां ताथागतानां सत्त्वादिहेतूनामनुदयप्रसङ्गात् । न विपक्षे बाधकप्रमाणभावात पक्षव्यापकत्वाच्चानन्वयत्वं प्रकृतेऽपि समानम् । इदानीं स्वोक्तमेव विशदत्वं व्याचष्टेप्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ॥४॥ असिद्धपना नहीं है, उसी प्रकार हेतु प्रयोगकाल में भी उसके असिद्धपना नहीं आ सकता। शङ्का-धर्मी को हेतु बनाने पर ( यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि यह पर्वत है, इत्यादि के समान ) अनन्वय दोष प्राप्त होता है। समाधान-यह बात ठीक नहीं है। प्रत्यक्ष विशेष यहाँ धर्मी है और प्रत्यक्ष सामान्य हेतु है। सामान्य का अपने विशेषों में अन्वय रहता है; क्योंकि सामान्य अपने सभी विशेषों में रहता है (ऐसा योग ने माना है)। शङ्का-साध्य रूप धर्म को हेतु बनाने पर प्रतिज्ञार्थंकदेशसिद्ध हेत्वाभास हो जायगा। समाधान-यह बात भी असम्मत है। साध्य के स्वरूप से हो असिद्ध होने से प्रतिज्ञार्थ के एक देश होने से असिद्धता नहीं है, अन्यथा धर्मी के द्वारा व्यभिचार आता है। शङ्का-(साध्य-साधन धर्मा-धर्मी सपक्ष है, उस ) सपक्ष में हेतु के न रहने से और अन्वय दृष्टान्त के न पाए जाने से आपके अनन्वय दोष प्राप्त होता है। ___ समाधान-यह कथन भी ठीक नहीं है; क्योंकि समस्त पदार्थों के क्षणभंग संगमरूप शृङ्गार को अङ्गीकार करने वाले बौद्धों के सत्त्वादि हेतुओं के अनुदय का प्रसंग प्राप्त होता है। विपक्ष में बाधक प्रमाण का सद्भाव होने से तथा पक्ष में व्यापक होने से सत्त्व हेतु के अनन्वयदूषण नहीं प्राप्त होता है, यह बात प्रकृत में भी समान है। प्रत्यक्ष के विशदज्ञानात्मकत्व का समर्थन करने के अनन्तर अपने द्वारा कहे गए विशदत्व के विषय में कहते हैं१. साध्यमेव धर्मः साध्यधर्मः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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