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प्रमेयरत्नमालायां
विसंवादात् प्रत्यक्षवदिति । न चैकत्वापलापे बन्ध-मोक्षादिव्यवस्था, अनुमानव्यवस्था वा। एकत्वाभावे बद्धस्यैव मोक्षादेगृहीत-सम्बन्धस्यैव लिंगस्यादर्शनात्, अनुमानस्य च व्यवस्थायोगादिति । न चास्य विषये बाधकप्रमाणसद्भावादप्रामाण्यम्, तद्विषये प्रत्यक्षस्य लैगिकस्य चाप्रवृत्तेः प्रवृत्ती वा प्रत्युत साधकत्वमेव, न बाधकत्वमित्यलमतिप्रसंगेन ।
तथा सौगतस्य प्रमाणसङ्ख्याविरोधिविध्वस्तबाधं तख्यिमपढीकत एव । न चैतत्प्रत्यक्षेऽन्तर्भवति; साध्य-साधनयोाप्य-व्यापकभावस्य साकल्येन प्रत्यक्षाविषयत्वात् । न हि तदियतो व्यापारान् कतु शक्नोति; अविचारकत्वात् सन्निहितविषयत्वाच्च । नाप्यनुमाने; तस्यापि देशादिविषयविशिष्टत्वेन व्याप्त्य
समान ) अप्रमाण भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उससे पदार्थ को जानकर प्रवृत्त हुए पुरुष की अर्थक्रिया में प्रत्यक्ष के समान विसंवाद नहीं पाया जाता है। एकत्व का अपलाप करने वाले बौद्धमत में बन्ध, मोक्षादि की व्यवस्था अथवा अनुमान व्यवस्था नहीं बनती है। एकत्व का अभाव मानने पर जो बँधा था, वही छूटा इस प्रकार साधन रूप लिंग का साध्य के साथ जो अविनाभाव है, उसका ग्रहण नहीं होगा। ऐसा न होने पर अनुमान की भी व्यवस्था नहीं बनेगी। प्रत्यभिज्ञान के एकत्व के विषय में बाधक प्रमाण के सद्भाव में अप्रमाणता भी नहीं है । प्रत्यभिज्ञान के विषय में प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होती है। यदि इन दोनों की प्रवृत्ति हो भी तो यह साधक ही है अर्थात् प्रत्यभिज्ञान ने जिसे विषय बनाया है उसे प्रत्यक्ष साधता है या अनुमान साधता है तो ये दोनों साधक ही हैं, बाधक नहीं हैं । अतः इस प्रसंग में अधिक कहने से बस ।
तथा बौद्धों की प्रमाण संख्या का विरोध, बाधा रहित तर्क नामक प्रमाण आकर उपस्थित है। इसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव नहीं होता है। क्योंकि साध्य-साधन का व्याप्य-व्यापक भाव रूप सम्बन्ध ( देशान्तर और कालान्तर के ) साकल्य से प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकता। और न प्रत्यक्ष ( जितने भा धूम हैं, वे सब अग्नि से जन्य हैं, अग्नि से भिन्न से उत्पन्न नहीं हैं ) इतने व्यापारों को करने में समर्थ है; क्योंकि वह वह अविचारक ( बौद्ध मत में निर्विकल्पक ) है और उसका विषय सन्नि१. प्रत्यभिज्ञानेन विषयीकृतं प्रत्यक्ष साधयति, अनुमानं साधयति, तदा
साधकत्वम् । २. तीर्यते संशय-विपर्ययावनेनेति तर्कः। . ३. अनियतदिग्देशकालादिविषया व्याप्तिः।
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