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________________ द्वितोयः समुद्देशः विषयत्वात् । तद्विषयत्वे वा प्रकृतानुमानानुमानान्तरविकल्पद्वयानतिक्रमात् । तत्र प्रकृतानुमानेन व्याप्तिप्रतिपत्तावितरेतराश्रयत्वप्रसंगः-व्याप्तौ हि प्रतिपन्नायामनुमानमात्मानमासादयति, तदात्मलाभे च व्याप्तिप्रतिपत्तिरिति । अनुमानान्तरेणाविनाभावप्रतिपत्तावनवस्थाचमूरी परपक्षचमू चञ्चमीतीति नानुमानगम्या व्याप्तिः । नापि साङ्ख्यादिपरिकल्पितैरागमोप'मानार्थापत्त्यभावैः साकल्येनाविनाभावावगतिः तेषां समय सङ्गृहीतसादृश्यानन्यथाभूताभावविषयत्वेन व्याप्त्यविषयत्वात् परस्तथाऽनभ्युपगमाच्च । अथ प्रत्यक्षपृष्ठभाविविकल्पात् साकल्येन साध्य-साधनभावप्रतिपत्त प्रमाणान्तरं तदर्थ मृग्यमित्यपरः। सोऽपि न युक्तवादी; विकल्पस्याध्यक्षगृहीतविषयस्य हित पदार्थ है। अनुमान में भी तर्क प्रमाण का अन्तर्भाव नहीं होता है। क्योंकि अनुमान देशादि के विषय से विशिष्ट व्याप्ति को विषय नहीं करता है । ( अनियत दिग्देश कालादि विषय वाली व्याप्ति होती है )। व्याप्ति को अनुमान का विषय मानने पर प्रकृत अनुमान व्याप्ति को विषय करेगा या दूसरा अनुमान ? प्रकृत अनुमान के द्वारा व्याप्ति का ग्रहण करने पर इतरेतराश्रय दोष का प्रसंग आता है। व्याप्ति को स्वीकार कर लेने पर अनुमान स्वरूपलाभ करने और अनुमान के स्वरूप लाभ करने पर व्याप्ति का ग्रहण हो। अन्य अनुमान से अविनाभाव मानने पर अनवस्था नामक व्याघ्री परपक्ष रूपी सेना को चबा डालेगी, अतः व्याप्ति अनुमानगम्य नहीं है। __ सांख्य, नैयायिक, अक्षपाद, प्राभाकर और जैमिनीय के द्वारा परिकल्पित आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव प्रमाणों के द्वारा सामस्त्य रूप से अविनाभावरूप व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकता है। क्योंकि उन आगमादि के संकेत द्वारा वस्तु को ग्रहण करना, सादृश्य को ग्रहण करना, अनन्यथाभत अर्थ को ग्रहण करना तथा अभाव को विषय करना ( पाया जाता ) है। ये सब व्याप्ति को विषय नहीं करते हैं तथा इन सब मत वालों ने उन्हें व्याप्ति को विषय करने वाला माना भी नहीं है । बौद्ध-प्रत्यक्ष के पीछे होने वाले विकल्प से ( देशान्तर कालान्तर रूप ) सामस्त्य से साध्य-साधन भाव की जानकारी होने से व्याप्ति ग्रहण के लिए अन्य प्रमाण की खोज नहीं करना चाहिए। १. प्रसिद्धसाधादप्रसिद्धस्य साधनमुपमानम् । उक्तञ्च-उपमानं प्रसिद्धार्थ साधात्साध्यसाधनमिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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