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द्वितीयः समुद्देशः ननु अञ्जनादिसंस्कृतमपि चक्षुः सातिशयमुपलभ्यत इति चेन्न, तस्य स्वार्थानतिक्रमेणैवातिशयोपलब्धेर्न विषयान्तरग्रहणलक्षणातिशयस्य । तथा चोक्तम्
यत्राप्यतिशयो दृष्टः स स्वार्थानतिलङ्घनात् ।
दूर-सूक्ष्मादिदृष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवृत्तितः ॥ ३ ॥ नन्वस्य वार्तिकस्य सर्वज्ञ-प्रतिषेधपरत्वाद्विषमो दृष्टान्त इति चेन्न; इन्द्रियाणां विषयान्तरप्रवृत्तावतिशयाभावमात्रे सादृश्याद् दृष्टान्तत्वोपपत्तेः। न हि सर्वो दृष्टान्तधर्मो दार्टान्तिके भवितुमर्हति, अन्यथा दृष्टान्त एव न स्यादिति ।
ततः स्थितम्-प्रत्यक्षानुमानाभ्यामर्थान्तरं प्रत्यभिज्ञान सामग्री-स्वरूपभेदादिति । न चैतदप्रमाणम्, ततोऽर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानस्यार्थक्रियायाम
यौग-अञ्जनादि से संस्कृत नेत्र के भी सातिशयपना प्राप्त होता है।
जैन-ऐसा कहना ठीक नहीं है । वह चक्षु अपने सन्निहित, वर्तमान रूपादि विषय का अतिक्रमण न करके ही अतिशयपने को प्राप्त होती है, विषयान्तर को ग्रहण करने रूप लक्षण वाला अतिशय उसमें नहीं दिखाई देता है । मीमांसा श्लोकवार्तिक में कहा है
( गृद्ध, वराहादि के नेत्रादि में; क्योंकि गृद्ध के चक्षु प्रबल होते हैं, वराह के कान प्रबल होते हैं ) जहाँ भी अतिशय दिखाई देता है, वह अपने विषय का उल्लंघन न करके ही दिखाई देता है ( अविषय में नहीं)। दूर-सूक्ष्मादि पदार्थों के देखने में जो विशेषता होती है, वह मर्यादा के भीतर ही है। रूप के विषय में श्रोत्र इन्द्रिय का अतिशय दिखाई नहीं देता है।
योग-यह वातिक सर्वज्ञ के निषेध के प्रसंग में कहा गया है। अतः यह दृष्टान्त विषम है। ____ जैन-यह बात ठीक नहीं है । हम जैसे लोगों की इन्द्रियों की विषयान्तर में प्रवृत्ति करने रूप अतिशय के अभाव मात्र में सादृश्य होने से, यह दृष्टान्त युक्तियुक्त है । दृष्टान्त के सभी धर्म दार्टान्त में हों, ऐसा नहीं है, अन्यथा दृष्टान्त ही नहीं रहेगा।
चकि पूर्वोत्तर विवर्तवर्ती एकत्व प्रत्यक्ष और अनुमान का विषय नहीं है अतः यह बात सिद्ध हुई कि प्रत्यक्ष और अनुमान से भिन्न प्रत्यभिज्ञान है; क्योंकि प्रत्यभिज्ञान की सामग्री दर्शन और स्मरण है तथा स्वरूप 'स एव' इस रूप सङ्कलन है। प्रत्यभिज्ञान को ( सीप में रजत ज्ञान के
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