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________________ प्रमेयरत्नमालायां ___ अथ संस्कार' स्मरणसहकृतमिन्द्रियमेव प्रत्यभिज्ञानं जनयति, इन्द्रियों चाध्यक्षमेवेति न प्रमाणान्तरमित्यपरः । सोऽप्यतिबालिश एव, स्वविषयाभिमुख्येन प्रवर्तमानस्येन्द्रियस्य सहकारिशतसमवधानेऽपि विषयान्तरप्रवृत्तिलक्षणातिशयायोगात् । विषयान्तरं चातीत साम्प्रतिकावस्थाव्याप्येकद्रव्यमिन्द्रियाणां रूपादिगोचरचारित्वेन चरितार्थत्वाच्च । नाप्यदृष्ट-सहकारिसव्यपेक्षमिन्द्रियमेकत्वविषयम्, उक्तदोषादेव । किञ्च-अदृष्टसंस्कारादिसव्यपेक्षादेवाऽऽ• त्मनस्तद्विज्ञानमिति किन्न कल्प्यते ? दृश्यते हि स्वप्न २.३सारस्वत- चाण्डालि. कादिविद्यासंस्कृतादात्मनो विशिष्टज्ञानोत्पत्तिरिति । योग-संस्कार (धारण ज्ञान रूप एक प्रत्यक्ष विशेष) तथा स्मरण से सहकृत इन्द्रिय ही प्रत्यभिज्ञान को उत्पन्न करती है और इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ ज्ञान प्रत्यक्ष ही है, अन्य प्रमाण (प्रत्यभिज्ञान ) नहीं है। ___जैन-ऐसा कहने वाला भी अत्यन्त मूर्ख है। अपने विषय की ओर अभिमुख होकर प्रवर्तमान इन्द्रिय के सैकड़ों सहकारी कारणों के सन्निधान होने पर भी विषयान्तर में प्रवृत्ति करने रूप अतिशय का होना असम्भव है। विषयान्तर अतीत और वर्तमान कालवर्ती अवस्थाओं में रहने वाला द्रव्य है; क्योंकि इन्द्रियाँ अपने रूपादि विषयों में प्रवृत्ति करके चरितार्थ होतो हैं । (पुण्य पाप लक्षण ) 'अदृष्ट के सहकारीपने की अपेक्षा इन्द्रिय एकत्व को विषय कर लेगी, यदि ऐसा कहो तो ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर उक्त दोष ही आता है। दूसरी बात यह है कि अदृष्ट और संस्कारादि सहकारी कारणों की अपेक्षा से आत्मा के ही एकत्व को ग्रहण करने वाला वह विज्ञान (प्रत्यभिज्ञान रूप विशिष्टज्ञान) ही क्यों नहीं मान लेते। ऐसा दिखाई देता है कि ( अतीत, अनागत, वर्तमान, लाभ, अलाभादि की सूचना देने वाली ) स्वप्नविद्या, ( असाधारण वादित्व, कवित्व आदि प्रदान करने वाली ) सारस्वत विद्या ( नष्ट मुष्टि आदि की सूचना देने वाली ) चाण्डालिका आदि विद्याओं से संस्कृत आत्मा के विशिष्ट ज्ञान की उत्पत्ति होती है। १. प्रत्यक्षविशेषो धारणाज्ञानं संस्कारः। स्वाश्रयस्य प्रागुभृतावस्थासमानावस्था न्तरापादकोऽतीन्द्रियो धर्मो वा संस्कारः। २. अतीतानागतवर्तमानलाभालाभादिसूचनी या सा स्वप्नविद्या । ३. असाधारणवादित्व कवित्वादिविधायिनी सारस्वतविद्या । ४. नष्टमुष्टयादिसूचिका चाण्डालिका विद्या, मन्त्रविशेषः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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