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________________ द्वितीयः समुद्देशः ३५ तथा प्रत्यभिज्ञानमपि सौगतीयप्रमाणसङ्ख्यां विघटयत्येव; तस्यापि प्रत्यक्षानुमानयोरनन्तर्भावात् । ननु तदिति स्मरणमिदमिति प्रत्यक्षमिति ज्ञानद्वयमेव, न ताभ्यां विभिन्न प्रत्यभिज्ञानाख्यं वयं प्रतिपद्यमानं प्रमाणान्तरमुपलभामहे । कथं तेन प्रमाणसङ्ख्या विघटनमिति ? तदप्यघटितमेव, यतः स्मरणप्रत्यक्षाभ्यां प्रत्यभिज्ञानविषयस्यार्थस्य ग्रहीतुमशक्यत्वात् । पूर्वोत्तरविवर्तवत्यैकद्रव्यं हि प्रत्यभिज्ञानविषयः, न च तत्स्मरणेनोपलभ्यते, तस्यानुभूतविषयत्वात । नापि प्रत्यक्षण, तस्य वर्तमानविवर्तवर्तित्वात् । यदप्युक्तम्'ताभ्यां भिन्नमन्यद् ज्ञानं नास्तीति' तदप्ययुक्तम्, अभेदपरामर्शरूपतया भिन्नस्यैवावभासनात् । न तयोरन्यतरस्य वाऽभेदपरामर्शकत्वमस्ति; विभिन्नविषयत्वात् । न चैतत् 'प्रत्यक्षेऽन्तर्भवति, अनुमाने वा; तयोः पुरोऽवस्थितार्थविषयत्वेनाविनाभूतलिङ्गसम्भावितार्थविषयत्वेन च पूर्वापरविकारव्याप्येकत्वाविषयत्वात् । नापि स्मरणे, तेनापि तदेकत्वस्याविषयीकरणात् । हम प्राप्त नहीं करते हैं अतः प्रत्यभिज्ञान से प्रमाण की संख्या का विघटन कैसे होता है ? जैन-यह कथन भी घटित नहीं होता; क्योंकि स्मरण और प्रत्यक्ष से प्रत्यभिज्ञान के विषय रूप पदार्थ का ग्रहण सम्भव नहीं है। पूर्वोत्तर पर्यायवर्ती एक द्रव्य प्रत्यभिज्ञान का विषय है। वह स्मरण से प्राप्त नहीं होता है। क्योंकि स्मरण का विषय अनुभूत पदार्थ है। प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष से भी प्राप्त नहीं होता है; क्योंकि वह वर्तमान पर्याय को विषय करता है । जो यह कहा है कि स्मरण और प्रत्यक्ष से भिन्न अन्य ज्ञान नहीं है, 'यह कहना भी ठीक नहीं है । ( पूर्वोत्तर विवर्तवर्ती एक द्रव्य परामर्शरूप) अभेद को परामर्श करने ( जानने) के कारण प्रत्यभिज्ञान में भिन्न का ही अवभासन होता है। स्मरण और प्रत्यक्ष इन दोनों में से एक में भी अभेद परामर्शकत्व नहीं है, क्योंकि उनका विषय भिन्न-भिन्न है। प्रत्यभिज्ञान का न तो प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव होता है, न अनुमान में। प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों सामने अवस्थित पदार्थ को विषय करने और अविनाभाव रूप लिंग से सम्भावित पदार्थ को विषय करने से पूर्वापर विकार (पर्याय) व्यापी एकत्व को विषय नहीं करते हैं। स्मरण में भी प्रत्यभिज्ञान का अन्तर्भाव नहीं हो सकता; क्योंकि स्मरण भी एकत्व को विषय नहीं करता है। १. प्रत्यभिज्ञानम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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