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प्रमेयरत्नमालायां
किञ्चवंवादिनो नाध्यक्ष प्रमाणं व्यवतिष्ठते; तत्राप्यसंवादस्यागौणत्वस्य च स्वभावहेतोः प्रामाण्याविनाभावित्वेन निश्चेतुमशक्यत्वात् । यच्च कार्यहेतोरप्यन्यथापि सम्भावनम्; तदप्यशिक्षितलक्षितम्, सुविवेचितस्य कार्यस्य कारणाव्यभिचारित्वात् । यादृशो हि धूमो ज्वलनकार्यं भूधरनितम्बादावतिबहलधवलतया प्रसर्पन्नुपलभ्यते, न तादृशो गोपाल-घटिकादाविति । यदप्युक्तम्- 'शक्रमूनि धूमस्यान्यथापि भाव इति तत्र किमयं शक्रमूर्द्धा अग्निस्वभावोऽन्यथा वा ? यद्यग्निस्वभावस्तदाऽग्निरेवेति कथं तदुद्भुत धूमस्यान्यथाभावः शक्यते कल्पयितुम् । अथानग्निस्वभावस्तदा तदुद्भवो धूम ए न भवनोति कथं तत्र तस्य तद्वयभिचारित्वमिति । तथा चोक्तम्
अग्निस्वभावः शक्रस्य मर्धा चेदग्निरेव सः ।
अथानग्निस्वभावोऽसौ धमस्तत्र कथं भवेत् ।। १ ।। इति । किञ्च--प्रत्यक्षं प्रमाण मिति कथमयं परं प्रतिपादयेत् ? परस्य प्रत्यक्षेण उपस्थित होगा। अर्थात् यदि व्यभिचार हो तो व्याप्य नहीं कहा जा सकता है।
दूसरी बात यह है कि अनुमान को प्रमाण नहीं मानने वाले तथा स्वभावहेतु को व्यभिचारी कहने वाले चार्वाक के मत में प्रत्यक्ष भी प्रमाण नहीं ठहरता है; क्योंकि प्रत्यक्ष में भी अविसंवादकता और अगौणता ये दोनों अनुमान के माने बिना निश्चित नहीं की जा सकतीं। और जो कार्यहेतु के अन्यथा अर्थात् अग्नि के बिना भी होने की सम्भावना की है, वह भी अशिक्षित जैसा प्रतीत होता है। क्योंकि सुनिश्चित कार्य का कारण के साथ व्यभिचार नहीं पाया जाता है। जैसा अग्नि का कार्य धुआँ पर्वत के तटभाग आदि में अति सघन और धवल आकार रूप से फैलता हआ प्राप्त होता है, वैसा धुआँ ऐन्द्रजालिक के घड़े आदि मे नहीं प्राप्त होता है। जो कहा गया है-बाँबी में धुयें का अन्यथा भी सद्भाव देखा जाता है, तो उस विषय में हमारा कहना है कि यह बाँबी अग्निस्वभाव है या अग्नि स्वभाव नहीं है ? यदि अग्नि स्वभाव है तो अग्नि ही है, तो कैसे उससे निकले हए धुयें का अन्यथाभाव ( अग्निव्यभिचारित्व ) कल्पित किया जा सकता है। यदि बाँबी अग्निस्वभाव नहीं है तो उससे उत्पन्न धुआँ ही नहीं है, कैसे वहाँ पर धुयें का व्यभिचारपना है ? कहा भी है
यदि बाँबी अग्निस्वभाव है तो वह अग्नि ही है और यदि वह अग्निस्वभाव नहीं है तो वहाँ धुआँ कैसे हो सकता है ?
दूसरी बात यह कि प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वाला चार्वाक्
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