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द्वितीयः समुदेशः घटिकादौ धूमस्य शक्रमूनि चान्यथापि भावात्पावकव्यभिचार्येव । ततः प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमस्यैवाविसंवादकत्वादिति ।
तदेतद् बालविलसितमिवाभाति; उमपत्तिशून्यत्वात् । तथाहि-किमप्रत्यक्षस्योत्पादककारणाभावादालम्बनाभावाद्वा प्रामाण्यं निषिध्यते ? तत्र न तावत्प्राक्तनः पक्षः; तदुत्पादकस्य सुनिश्वितान्यथानुपात्ति'-नियतनिश्चयलक्षणस्य साधनस्थ सद्भावात् । नो खल्वप्युदोचीनः पक्षः; तदालम्बनस्य पावकादेः सकलविचारचतुरचेतसि सर्वदा प्रतीयमानत्वात् । यदपि स्वभावहेतोव्यभिचारसम्भावनमुक्तम्, तदप्यनुचितमेव; स्वभावमात्रस्याहेतुत्वात् । व्याप्यरूपस्यैव स्वभावस्थ व्यापकम्प्रति गमकत्वाभ्युपगमात् । न च व्याप्यस्य व्यापकव्यभि वारित्वम् ; व्याप्यत्त्रविरोधप्रसङ्गात् ।
क्योंकि देशान्तर में लता रूप शिंशा (शीशम) होता है। बेत का बीज जलाए जाने पर कदलीकाण्ड को उत्पन्न करता है। कटहल का बोज कदलीकाण्ड को उत्पन्न नहीं करता है । अतः स्वभाव हेतु व्यभिचारी है। तथा कार्यलिंग भी व्यभिचारी है। इन्द्रजालिया के घट आदि में तथा बाँबी में आग के बिना भी धुआँ दिखाई देता है अतः धु को अग्नि का कार्य मानना व्यभिचार है। ( स्वभाव हेतु और कार्य हेतु में अविनाभाव के अभाव से, इनके द्वारा उद्भूत अनुमान की प्रमाणता च कि घटित नहीं होती है ) अतः प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, क्योंकि उसमें अविसंवादकता पायी जाती है।
यह कथन बाल विलास के समान प्रतिभासित होता है, क्योंकि यह युक्ति से शून्य है। इसी बात को स्पष्ट करते हैं-क्या उत्पादक कारण के अभाव से अथवा आलम्बन के अभाव से अप्रत्यक्ष की प्रमाणता का निषेध किया जा रहा है ? इनमें से पहला पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि जिसकी अन्यथानुपपत्ति सुनिश्चित है, ऐसे लक्षण वाले अनुमान के उत्पादक साधन का सद्भाव पाया जाता है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि अप्रत्यक्ष रूप अनुमान के विषय रूप आलम्बन अग्नि आदिक समस्त विचार चतुर लोगों के चित्त में सदा प्रतीत होते हैं। जो स्वभाव हेतु में व्यभिचार की सम्भावना के विषय में कहा है, वह भी अनुचित ही है। क्योकि स्वभावमात्र हेतू नहीं है। व्याप्य ( शिशपात्व) रूप स्वभाव को ही व्यापक ( वृक्षत्व ) के प्रति गमकपना माना गया है । व्याप्य के व्यापक से व्यभिचारपना भी नहीं है। व्याप्यत्व के साथ विरोध का प्रसङ्ग १. साध्यमन्तरेण साधनानुपपत्तिः ।
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