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द्वितीयः समुद्देशः ग्रहीतुमशक्यत्वात् । व्यावहारादिकार्यप्रदर्शनात्तं प्रतिपद्यतेति चेदायातं तहि कार्याकारणानुमानम् । अथ लोकव्यवहारापेक्षयेष्यत एवानुमानमपि, परलोकादावेवानभ्युपगमात्तदभावादिति कथं तदभावोऽनुपलब्धरिति चेत् तदाऽनुपलब्धिलिङ्गजनितमनुमानमपरमापतितमिति । प्रत्यक्षप्रामाण्यमपि स्वभावहेतुजातानुमितिमन्तरेण नोपपत्तिमियर्तीति प्रागेवोक्तमित्युपरम्यते । यदप्युक्तं धर्मकीर्तिना
प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥ २॥ इति ।
शिष्यादि को प्रत्यक्ष प्रमाण का प्रतिपादन करेगा ? क्योंकि पर पुरुष का आत्मा प्रत्यक्ष से ग्रहण करना शक्य नहीं है। व्यवहार ( वचन चातुर्य ) आदि कार्य के देखने से पर की बुद्धि आदि को जान लेगा, यदि ऐसा कहो तो कार्य से कारण का अनुमान आ गया। यदि कहो कि लोक व्यवहार की अपेक्षा अनुमान इष्ट होने पर भी परलोक आदि में उसे हम नहीं मानते हैं; क्योंकि परलोकादि का अभाव है। तो उस पर हमारा कहना है कि परलोकादि का अभाव कैसे है ? यदि कहो कि परलोकादि का अभाव अनुपलब्धि से है तो अनुपलब्धि रूप लिंग से जनित एक अन्य अनुमान आ गया। प्रत्यक्ष प्रामाण्य भी स्वभाव हेतु जनित अनुमान के बिना युक्ति संगतता को प्राप्त नहीं होता, यह बात हम कह चुके हैं, अतः विराम लेते हैं। जैसा कि (प्रमाण विनिश्चय में ) धर्मकोति ने कहा है
प्रमाण सामान्य और अप्रमाण सामान्य की स्थिति होने से, शिष्यादि की बुद्धि के ज्ञान से और ( अनुपलब्धि हेतु से ) परलोकादि के प्रतिषेध से प्रमाणान्तर अर्थात् अन्य प्रमाणरूप अनुमान का सद्भाव सिद्ध होता है ॥२॥
विशेष-अविसंवादित्व-विसंवादित्व स्वभाव रूप दो लिङ्ग के बिना प्रमाण सामान्य और अप्रमाण सामान्य की स्थिति नहीं बनती है। तथा व्यवहारादि कार्यलिंग के बिना दूसरे की बुद्धि का निश्चय सम्भव नहीं है तथा अनुपलब्धि रूप लिंग के बिना परलोकादि का निषेध घटित नहीं होता है, इस प्रकार प्रमाण सामान्य और अप्रमाण सामान्य की स्थिति, शिष्यादि की बुद्धि का ज्ञान और परलोकादि के प्रतिषेध से प्रमाणान्तर अनुमान की समीचीनता सिद्ध होती है। १. प्रमाणविनिश्चये (?)।
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