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________________ १६ प्रमेयरत्नमालायां कथं साध्य-साधनभाव इति न मन्तव्यम् ज्ञानस्वभावतया तयोरभेदेऽपि व्याप्यव्यापकत्व धर्माधारतया भेदोपपत्तेः शिंशपात्ववृक्षत्ववत् । अथेदानी सविशेषणमर्थग्रहणं समर्थयमानस्तदेव स्पष्टीकुर्वन्नाह ____ अनिश्चितोऽपूर्वार्थः ॥४॥ यः प्रमाणान्तरेण संशयादिव्यवच्छेदेनानध्यवसितः सोऽपूर्वार्थः । तेनेहादिज्ञानविषयस्यावग्रहादिगृहीतत्वेऽपि न पूर्वार्थत्वम् । अवग्रहादिनेहादिविषयभूतावान्तरविशेषनिश्चयाभावात् । दोनों समानार्थक होने के कारण इन दोनों में कैसे साधन-साध्य भाव है, यह नहीं मानना चाहिए । ज्ञान स्वभावी होने से समारोप का विरोधी होना और निश्चयात्मक होना, इन दोनों में अभेद होने पर भी व्याप्यव्यापकत्व रूप धर्मों के आधार की अपेक्षा भेद बन जाता है, जैसेशिंशपात्व और वृक्षत्व में। प्रत्यक्ष ज्ञान के निश्चयात्मकत्व के समर्थन के अनन्तर (विज्ञानवादी ऐसा मानते हैं कि व्यवसायात्मक विशेषण हो तो, अर्थ विशेषण न हो, इस प्रकार कहने वाले विज्ञानाद्वैतवादियों के प्रति अर्थ पद को जो अपूर्व विशेषण दिया है, उसका समर्थन करते हुए आचार्य उसके अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं सूत्रार्थ-अनिश्चित पदार्थ को अपूर्वार्थ कहते हैं अर्थात् जिस पदार्थ का पहले किसी प्रमाण से निश्चय नहीं हुआ है उसे अपूर्वार्थ कहते हैं ॥४॥ जिस वस्तु का संशयादि का व्यवच्छेद करने वाले अन्य प्रमाण से पहले निश्चय नहीं हुआ है, उसे अपूर्वार्थ कहते हैं। इसलिए ईहादि ज्ञानों का विषयभूत पदार्थ अवग्रहादि के द्वारा गहीत होने पर भी पूर्वार्थ नहीं है। क्योंकि अवग्रहादि के द्वारा ईहादि ज्ञान के विषयभूत अवान्तर विशेष का निश्चय नहीं होता है। विशेष-विषय और विषयी का सन्निपात होने पर दर्शन होता है। उसके पश्चात् जो पदार्थ का ग्रहण होता है, वह अवग्रह कहलाता है। जैसे चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा 'यह शुक्ल रूप है' ऐसा ग्रहण करना अवग्रह है। अवग्रह के द्वारा ग्रहण किए गए पदार्थों में उसके विशेष जानने की इच्छा ईहा कहलाती है। जैसे-जो शुक्ल रूप देखा है, वह क्या वकपंक्ति है, इस प्रकार विशेष जानने की इच्छा या 'वह क्या पताका है', इस प्रकार जानने की इच्छा ईहा है। विशेष निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है, उसे अवाय कहते हैं। जैसे उत्पतन, निपतन और पक्षविक्षेप आदि के द्वारा 'यह - वकपंक्ति ही है, ध्वजा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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