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________________ प्रथमः समुदेशः अथोक्तप्रकार एवापूर्वार्थः, किमन्योऽप्यस्तोत्याह-- दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् ॥५॥ दृष्टोऽपि गृहीतोऽपि, न केवलमनिश्चित एवेत्यपि शब्दार्थः । तादृगपूर्वार्थो भवति । समारोपादिति हेतुः । एतदुक्तं भवति-गृहीतमपि ध्यामलिताकारतया यन्निणेतुं न शक्यते, तदपि वस्त्वपूर्वमिति व्यपदिश्यते; प्रवृत्तसमारोपाव्यवच्छेदात् । ननु भवतु नामापूर्वार्थव्यवसायात्मकत्वं विज्ञानस्य; स्वव्यवसायं तु न विद्म इत्यत्राह-- स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसायः ॥६॥ है, ऐसा निश्चय होना अवाय है। जानी हुई वस्तु का जिस कारण कालान्तर में विस्मरण नहीं होता, उसे धारणा कहते हैं। जैसे--यह वही वकपंक्ति है, जिसे प्रातःकाल मैंने देखा था, ऐसा जानना धारणा है ( सर्वार्थसिद्धि १/१५ ) । शङ्काकार का कहना है कि ये चारों चूकि गृहीत अर्थ को ग्रहण करते हैं अतः उत्तरोत्तर ज्ञान का विषयभूत पदार्थ अपूर्व नहीं माना जा सकता। इसका समाधान यह है कि ये ज्ञान यद्यपि गृहीतग्राही हैं, फिर भी उनके विषयभूत पदार्थ में अपूर्वता है; क्योंकि इन ज्ञानों का विषय उत्तरोत्तर नई-नई विशेषताओं को जानना है। अपूर्वार्थ क्या उक्त प्रकार का हो है अथवा अन्य प्रकार का भी है। इसके विषय में कहते हैं-- सूत्रार्थ--दष्ट होने पर भी समारोप के कारण पदार्थ वैसा ही अर्थात् अपूर्वार्थ हो जाता है। दष्टोऽपि = गृहीत होने पर भी या अन्य प्रमाण से ज्ञात होने पर भी, केवल अनिश्चित ही पदार्थ अपूर्वार्थ नहीं है, अपितु अन्य प्रमाण से निश्चित भी विस्मृत पदार्थ के समान संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय के कारण अपूर्वार्थ हो जाता है। समारोप होने से, यह हेतु है। अतः सूत्र का अर्थ इस प्रकार होता है-गृहीत होने पर भी अव्यक्त आकारवाला होने से जिसका निर्णय करना सम्भव नहीं है, वह वस्तु भी अपूर्व कहलाती है, क्योंकि उसके विषय में जो समारोप प्रवृत्त हुआ है, उसका निराकरण नहीं हुआ है । यौग ( न्याय-वैशेषिक ) कहते हैं-ज्ञान अपूर्वार्थ का निश्चय करने वाला भले ही हो, किन्तु उसको हम स्वव्यवसायी नहीं मानते हैं। इसके विषय में जैनाचार्य कहते हैं-- सत्रार्थ-स्वोन्मुख रूप से अपने आपको जानना स्वव्यवसाय है ॥६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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