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प्रथमः समुद्देशः तत्प्रमाणत्वेनाभ्युपगतं वस्त्विति धमिनिर्देशः। व्यवसायात्मकमिति साध्यम् । समारोपविरुद्धत्वादिति हेतुः । अनुमानवदिति दृष्टान्तः इति । अयमभिप्रायः--संशयविपर्यासानध्यवसायस्वभावसमारोपविरोधिग्रहणलक्षणव्यवसायात्मकत्वे सत्येवाविसंवादित्वमुपपद्यते । अविसंवादित्वे च प्रमाणत्वमिति 'चतुर्विधस्यापि समक्षस्य प्रमाणत्वमभ्युपगच्छता समारोपविरोधिग्रहणलक्षणं निश्चयात्मकमभ्युपगन्तव्यम् । ननु तथापि समारोपविरोधिव्यवसायात्मकत्वयोः समानार्थकत्वात्
वह प्रमाण के रूप में स्वीकारी हुई वस्तु, इस प्रकार धर्मी का निर्देश किया है। व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक ), यह साध्य है। ( संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रूप ) समारोप का विरोधी होने से, यह हेतु है । अनुमान के समान, यह दृष्टान्त है।
विशेष-बौद्धों के अनुसार प्रत्यक्ष की प्रमाणता अविसंवादी होने के कारण है। अविसंवादीपने की प्रमाणता अर्थक्रिया में स्थित होने से है, अर्थक्रिया में स्थित होने की प्रमाणता अर्थप्रापकत्व से है। अर्थप्रापकत्व की प्रमाणता प्रवर्तक होने से है। प्रवर्तक होने की प्रमाणता स्वविषय उपदर्शक होने से है, स्वविषय उपदर्शकत्व को प्रमाणता निश्चय के उत्पादकत्व से है, निश्चय के उत्पादकत्व की प्रमाणता गृहीत अर्थ के अव्यभिचारत्व से है।
विरोध तीन प्रकार का है१-सहानवस्थान विरोध, जैसे-अन्धकार और प्रकाश में । २-वध्य घातक विरोध, जैसे-सर्प और नेवले में । ३-परस्परपरिहारस्थितिलक्षणविरोध, जैसे-रूप रस में ।
समारोप का विरोधी होने से तात्पर्य सहानवस्थान लक्षण विरोध ग्रहण करना चाहिए। - इसका अभिप्राय यह है कि संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय के स्वभाव रूप समारोप के विरोधी पदार्थ को ग्रहण करना जिसका लक्षण है, इस प्रकार के निश्चयात्मकपने के होने पर ही अविसंवादीपना बन सकता है और अविसंवादीपने के होने पर ही ज्ञान की प्रमाणता हो सकती है, इसलिए स्वसंवेदन, इन्द्रिय , मानस और योगिप्रत्यक्ष की प्रमाणता स्वीकार करने वाले ( बौद्धों) को समारोप के विरोधी को ग्रहण करने रूप लक्षण वाले निश्चयात्मक ज्ञान को ही मानना चाहिए।
फिर भी समारोप का विरोधी होना और निश्चयात्मक होना ये १. स्वसंवेदनेन्द्रियमनोयोगिप्रत्यक्षस्य ।
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