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प्रमेयरत्नमालायां प्रमाणत्वेनाभ्युपगतं वस्तु ज्ञानमेव भवितुमर्हति, नाज्ञानरूपं सन्निकर्षादिः । तथा च प्रयोगः-प्रमाणं ज्ञानमेव, हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थत्वात् । यत्तु न ज्ञानं तन्न हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थम्, यथा घटादि । हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थञ्च विवादापन्नम् , तस्माज्ज्ञानमेव भवतीति । न चैतदसिद्धम्, हितप्राप्तयेऽहितपरिहाराय च प्रमाणमन्वेषयन्ति प्रेक्षापूर्वकारिणो न व्यसनितया'; सकलप्रमाणवादिभिरभिमतत्वात् ।
अत्राह सौगतः-भवतु नाम सन्निकर्षादिव्यवच्छेदेन ज्ञानस्यैव प्रामाण्यम्', न तदस्माभिनिषिध्यते । तत्तु व्यवसायात्मकमेवेत्यत्र न युक्तिमुत्पश्यामः । अनुमानस्यैव व्यवसायात्मनः प्रामाण्याभ्युपगमात् । प्रत्यक्षस्य तु निर्विकल्पकत्वेऽप्यविसंवादकत्वेन प्रामाण्योपपत्तेरिति तत्राह
तनिश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥३॥
है अतः वह प्रमाण के रूप में मानी गई वस्तु ज्ञान ही होने के योग्य है, अज्ञान रूप सन्निकर्षादि नहीं। अनुमान प्रयोग इस प्रकार होगा-प्रमाण ज्ञान ही है, क्योंकि वह हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में समर्थ है । जो ज्ञान नहीं होता है, वह हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में समर्थ नहीं होता है । जैसे घटा दि। हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में समर्थ प्रमाण है अतः वह ज्ञान ही हो सकता है। यह बात असिद्ध नहीं है। क्योंकि हित की प्राप्ति और अहित के परिहार के लिए विचारपूर्वक कार्य करने वाले प्रमाण का अन्वेषण करते हैं, व्यसन रूप से नहीं, यह बात समस्त प्रमाणवादियों को इष्ट है। विशेष—कार्य के बिना प्रवृत्ति व्यसन है ।
यहाँ पर बौद्ध कहते हैं-सन्निकर्षादि का निराकरण करने से ज्ञान का ही प्रामाण्य हो ( क्योंकि वह उपादेयभूत अर्थक्रिया के प्रसाधक अर्थ का प्रदर्शक है ), उसका हम निषेध नहीं करते हैं। किन्तु वह ज्ञान निश्चयात्मक ही हो । यहाँ पर हम कोई युक्ति नहीं देखते हैं। क्योंकि हम लोगों ने निश्चयात्मक अनुमान की ही प्रमाणता निश्चित की है। ( कल्पनापोढ़ अभ्रान्त रूप ) प्रत्यक्ष तो निर्विकल्पक है अतः (निश्चयात्मक न होने पर भी) अविसंवादक होने से उसका प्रामाण्य प्राप्त होता है, ऐसा कहने वाले बौद्धों के प्रति कहा है
सूत्रार्थ-वह ज्ञान निश्चयात्मक है; क्योंकि वह समारोप का विरोधी है, जैसे अनुमान ॥ ३ ॥ १. कार्य विना प्रवृत्तिर्व्यसनम् ।
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