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________________ प्रथमः समुद्देशः १३ निरस्तं बोद्धव्यम् । विरुद्धस्य व्यभिचारिणश्चाविनाभावनियमनिश्चयलक्षणत्वायो. गात् । अतो भवत्येव साध्यसिद्धिरिति केवलव्यतिरेकिणोऽपि हेतोर्गमकत्वात्, सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्वादितिवत् । अथेदानी स्वोक्तप्रमाणलक्षणस्य ज्ञानमिति विशेषणं समर्थयमानः प्राहहिताहितप्राप्तिपरिहारसमथं हि प्रमाणं ततो ज्ञानमेव तत्॥२॥ हितं सुखं तत्कारणञ्च । अहितं दुःखं तत्कारणञ्च । हितं चाहितं च हिताहिते। तयोः प्राप्तिश्च परिहारश्च, तत्र समर्थम् । 'हि' शब्दो यस्मादर्थे । तेनायमर्थः सम्पादितो भवति-यस्माद्धिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थं प्रमाणम, ततस्तहेतु की स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान रूप साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति निश्चित रूप से है। इसलिए वह बाधक विपक्ष ( संशयादिक ) में बाधक प्रमाण के बल से निश्चित ही है। इस कथन से ( साध्य विपरीत व्याप्त ) विरुद्ध और (सव्यभिचार ) अनैकान्तिक का भी निराकरण जानना चाहिए; क्योंकि विरुद्ध हेतु के और व्यभिचारी हेतु के अविनाभावरूप नियम के निश्चयस्वरूप लक्षणपने का अभाव है। अतः प्रमाणत्व हेतु से साध्य की सिद्धि होती ही है; क्योंकि केवल व्यतिरेकी हेतू भी गमक है। जैसे-जीता हुआ शरीर आत्मा सहित है; क्योंकि वह प्राणादिमान् है । जो आत्मा सहित नहीं होता है वह प्राणादिमान् नहीं देखा गया। जैसे-मतक शरीर । विशेष-साध्य के अभाव में साधन अर्थात् हेतु का न होना अविनाभाव है। अतएव एक मुहूर्त बाद शकट का उदय होगा; क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है, इत्यादि में कृत्तिकोदय शकट का धर्म नहीं होता है। साध्य के बिना हेतू का न होना विद्यमान नहीं है। प्रमाण का असाधारण स्वरूप कहने के अनन्तर इस समय अपने कहे गए प्रमाण के लक्षण में 'ज्ञान' इस विशेषण का समर्थन करते हए. कहते हैं सूत्रार्थ-चं कि प्रमाण हित की प्राप्ति और अहित का परिहार करने में समर्थ है, अतः वह ज्ञान ही हो सकता है ।।२।। सुख ( माला, वस्त्रादि) और सुख के कारण (सम्यग्दर्शनादि ) को हित कहते हैं। दुःख ( कष्टकादि ) और दुःख के कारण ( मिथ्यात्वादि ) को अहित कहते हैं। हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ का विग्रह इस प्रकार होगा-'हितं चाहितं च हिताहिते, तयोः प्राप्तिश्च परिहारश्च तत्र समर्थम्' । हि शब्द हेतु के अर्थ में है। उससे यह अर्थ सम्पादित होता है-चूँकि हित की प्राप्ति और अहित के परिहार में समर्थ प्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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