________________
प्रथमः समुद्देशः
दिप्रदर्शक 'वाक्यवदिति । सत्यम् रे, प्रमाण - तदाभासपदोपादानादभिधेयमभिहितमेव, प्रमाण - तदाभासयोरनेन प्रकरणेनाभिधानात् । सम्बन्धश्चार्थायातः प्रकरण तदभिधेययोवच्य वाचक भावलक्षणः प्रतीयत एव । तथा प्रयोजनं चोक्तलक्षणमादिश्लोकेनैव संलक्ष्यते । प्रयोजनं हि द्विधा भिद्यते - साक्षात्परम्परयेति । तत्र साक्षात्प्रयोजनं 'वक्ष्ये' इत्यनेनाभिधीयते, प्रथमं शास्त्र व्युत्पत्तेरेव विनेयैरन्वेषणात् । पारम्पर्येण तु प्रयोजनमर्थसंसिद्धिरित्यनेनोच्यते, शास्त्रव्युत्पत्त्यनन्तरभावित्वादर्थसंसिद्धेरिति । ननु निःशेष विघ्नोपशमनायेष्ट देवतानमस्कारः शास्त्रकृता कथं न कृत इति न वाच्यम्; तस्य मनः कायाभ्यामपि सम्भवात् । अथवा वाचनिकोऽपि नमस्कारोऽनेनैवादि वाक्येनाभिहितो वेदितव्यः; केषाञ्चिद्वाक्यानामुभयार्थ प्रति
भी विद्वानों के द्वारा तिरस्करणीय होती है । जैसे - माता से विवाह करने के प्रदर्शक वाक्य | माता के साथ विवाह शक्य है, किन्तु वह बुद्धिमानों के द्वारा तिरस्करणीय है ।
समाधान- आपकी बात सही है । प्रमाण और प्रमाणाभास पदों के ग्रहण करने से अभिधेय का कथन हो ही गया: क्योंकि इस प्रकरण ग्रन्थ के द्वारा प्रमाण और प्रमाणाभास का कथन हो हो गया । और सम्बन्ध अर्थ- प्राप्त है; क्योंकि इस प्रकरण ग्रन्थ में और उसके द्वारा अभिधेय प्रमाण और प्रमाणाभास में वाच्य वाचक भावरूप लक्षण वाला सम्बन्ध स्पष्टत: प्रतीत हो रहा है । इसी प्रकार प्रयोजन भी इसी आदिम श्लोक से भली भाँति लक्षित हो रहा है । प्रयोजन के दो भेद होते हैं - १. साक्षात् २. परम्परा से । ( शास्त्र व्युत्पत्ति रूप ) साक्षात्प्रयोजन 'वक्ष्ये' इस पद के द्वारा कहा गया है । शिष्य शास्त्र की व्युत्पत्ति का सबसे पहले अन्वेषण करते हैं। परम्परा से प्रयोजन 'अर्थ संसिद्धि' इस पद के द्वारा कहा गया है; क्योंकि पदार्थ की भले प्रकार सिद्धि शास्त्र की व्युत्पत्ति के अनन्तर ही होती है । यहाँ यह नहीं कहना चाहिए कि समस्त विघ्नों की उपशान्ति के लिए शास्त्रकार ने इष्टदेवता को नमस्कार क्यों नहीं किया; क्योंकि यह तो मन और काय से भी संभव है । अथवा वाचनिक नमस्कार भी इसी आदि वाक्य से कहा हुआ जानना चाहिए, क्योंकि कितने ही वाक्य उभय अर्थ का
१. यजुर्वेदप्रवृत्तिलक्षणे मातरमपि विवृणीयात् पुत्रकाम इति श्रुतिः ।
२. अर्धाङ्गीकारे ।
३. मतेर्विशेषेण संशयादिव्यवच्छेदेनोत्पत्तिः व्युत्पत्तिरिति व्युत्पत्तेर्लक्षणम् ।
७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org