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________________ प्रमेयरत्नमालायां केवलं प्रमाणादर्थसंसिद्धिर्भवति, विपर्ययो भवति---अर्थसंसिद्धयभावो भवति । कस्मात् । तदाभासात् प्रमाणाभासात् । इतिशब्दो हेत्वर्थे , इति हेतोः। अयमत्र समुदायार्थः-यतः कारणात्प्रमाणादर्थसंसिद्धिर्भवति, यस्माच्च तदाभासाद्विपर्ययो भवति; इति हेतोस्तयोः प्रमाण-तदाभासयोर्लक्ष्म लक्षणमहं वक्ष्ये इति । ननु सम्बन्धाभिधेयशक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनवन्ति हि शास्त्राणि भवन्ति । तत्रास्य प्रकरणस्य यावदभिधेयं सम्बन्धो वा नाभिधीयते, न तावदस्योपादेयत्वं भवितुमर्हति; एष वन्ध्यासुतो यातीत्यादिवाक्यवत, दश दाडिमादिवाक्यवच्च । तथा शक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनमपि शास्त्रादाववश्यं वक्तव्यमेव, अशक्यानुष्ठानेष्टप्रयोजनस्य सर्वज्वरहरतक्षकचूडारत्नालङ्कारोपदेशस्येव प्रेक्षावद्भिरनादरणीयत्वात् । तथा शक्यानुष्ठानस्याप्यनिष्टप्रयोजनस्य विद्वद्भिरवधीरणा मातृविवाहापदार्थ का सम्यक् सिद्धि ही नहीं होती है, विपर्यय भी होता है-अर्थ की सम्यक प्रकार की सिद्धि का अभाव होता है। कैसे ? तदाभासप्रमाणाभास से। इति शब्द हेतु अर्थ में है-इति हेतोः-इस कारण यहाँ यह समुदायार्थ है-चुंकि प्रमाण से अर्थ की भले प्रकार सिद्धि होती है, और प्रमाणाभास से विपर्यय होता है अतः प्रमाण और प्रमाणाभास का लक्षण मैं कहँगा। शङ्का-शास्त्र निश्चित रूप से सम्बन्ध, अभिधेय और शक्यानुष्ठान-इष्ट प्रयोजन वाले होते हैं । इनमें से इस प्रकरण का जब तक अभिधेय अथवा सम्बन्ध नहीं कहा जायगा, तब तक इसकी उपादेयता होनी योग्य नहीं है । जैसे-यह खरगोश के सींग का धनुष धारण करने वाला, आकाश कुसुम का सेहरा धारण किए हुए वन्ध्या का पुत्र मृगतृष्णा में स्नान कर जा रहा है। यहाँ पर सम्बन्ध है। किन्तु अभिधेयत्व नहीं है। दश अन्तर हैं। छः पूवा हैं, यह बकरे का चमड़ा है। इन वाक्यों में अभिधेयत्व होने पर भी सम्बन्ध नहीं है। उसी प्रकार शास्त्र के आदि में शक्यानुष्ठान-इष्ट प्रयोजन भी अवश्य कहना चाहिए; क्योंकि जो बात इष्ट प्रयोजन वाली होते हुए भी अशक्यानुष्ठान हो अर्थात् जिसका अनुष्ठान करना सम्भव न हो, वह भी बुद्धिमानों के द्वारा आदरणीय नहीं होती है । जैसे किसी पुरुष से यह कहना कि तक्षक नाग के मस्तक के मणि का अलङ्कार धारण करने से समस्त ज्वर रोग दूर हो जाते हैं। जो बात शक्यानुष्ठान होते हुए भी अनिष्ट प्रयोजन वाली होती है, वह १. इति हेतुप्रकरणप्रकर्षादिसमाप्तिषु । २. एवं सति त्रिषु। ३. अनादरणीयत्वात् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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