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प्रथमः समुद्देशः अस्यार्थः-अहं वक्ष्ये प्रतिपादयिष्ये । किं तत् ? लक्ष्म लक्षणम्' । किविशिष्टं लक्ष्म ? सिद्धम्, पूर्वाचार्यप्रसिद्धत्वात् । पुनरपि कथम्भूतम् ? अल्पम्, अल्पग्रन्थवाच्यत्वात् । ग्रन्थतोऽल्पमर्थतस्तु महदित्यर्थः । कान् ? लघीयसो विनेयानुद्दिश्य । लाघवं मतिकृतमिह गृह्यते, न परिमाणकृतं नापि कालकृतम्, तस्य प्रतिपाद्यत्वव्यभिचारात् । कयोस्तल्लक्ष्म ? तयोः प्रमाण-तदाभासयोः । कुतः ? यतोऽर्थस्य परिच्छेद्यस्य संसिद्धिः सम्प्राप्तिप्तिर्वा भवति । कस्मात् ? प्रमाणात् । न
व्युत्पत्ति है-'अर्यते गम्यते ज्ञायते यः सोऽर्थः'-जिसे जाना जाता है, वह अर्थ है । जो जैसा नहीं होने पर भी उसके समान प्रतिभासित होता है वह तदाभास है। अपनी रुचि से मैं प्रमाण और प्रमाणाभास का लक्षण नहीं कह रहा है, अपितु इनका पूर्वाचार्यों द्वारा प्रसिद्ध लक्षण कह रहा हूँ, एतदर्थ सिद्ध यह विशेषण दिया है। पिष्टपेषण के परिहार के लिए अल्प यह विशेषण दिया है । लघीयसः से तात्पर्य मन्दमतियों को है ।
इसका अर्थ है-मैं प्रतिपादन करूँगा। वह क्या ? लक्ष्म = लक्षण । वह लक्षण कैसा है ? सिद्ध है; क्योंकि पूर्वाचार्यों से प्रसिद्ध है। पुनः कैसा है। अल्प है; क्योंकि अल्प शब्दों से रचे गए ग्रन्थ के द्वारा कहा गया है। यद्यपि वह लक्षण ग्रन्थ की अपेक्षा अल्प है तथापि अर्थ की अपेक्षा महान् है । यह लक्षण किनके लिए कहा जा रहा है ? लघु शिष्यों को लक्ष्य करके । यहाँ पर लाघव बुद्धि की अपेक्षा ग्रहण किया जाता है । परिमाणकृत और कालकृत नहीं; क्योंकि उसका प्रतिपाद्य शिष्य के साथ व्यभिचार देखा जाता है । तात्पर्य यह कि लाघव तीन प्रकार का है-मतिकृत, कालकृत और कायपरिमाणकृत । इनमें से अन्त के दो लाघव ग्राह्य नहीं हैं। क्योंकि उन दोनों का प्रतिपाद्य शिष्य के साथ व्यभिचार देखा जाता है। कालकृत लाघव को मानें तो आठ वर्ष के ज्ञान सम्पन्न संयत से व्यभिचार दोष आ जाता है। कालकृत लाघव ग्रहण करें तो जिसे शास्त्र विदित है, ऐसे कूबड़े आदि से व्यभिचार देखा जाता है। अर्थात् कितने ही कुबड़े अधिक ज्ञानी दिखाई देते हैं । किनका लक्षण कहा जायगा ? प्रमाण और प्रमाणाभास का । कैसे ? क्योंकि ज्ञेय पदार्थ की भले प्रकार सिद्धि, सम्प्रप्ति अथवा ज्ञप्ति होती है। किससे ? प्रमाण से। प्रमाण से केवल
१. व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम् । २. शिष्यत्व । ३. साध्याभावे प्रवर्तमानो हेतुर्व्यभिचारी भवति ।
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