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________________ प्रमेयरत्नमालायां वैजेयप्रियपुत्रस्य हीरपस्योपरोधतः । शान्तिषेणार्थमारब्धा परीक्षामुखपञ्जिका ।। ५ ।। श्रीमन्न्यायावारपारस्यामेयप्रमेयरत्नसारस्यावगाहनमव्युत्पन्नः कतु न पार्यत इति तदवगाहनाय प्रोतप्राप्यमिदं प्रकरणमाचार्यः प्राह । तत्प्रकरणस्य च सम्बन्धादित्रयापरिज्ञाने सति प्रेक्षावतां प्रवृत्तिर्न स्यादिति तत्त्रयानुवादपुरस्सरं वस्तुनिर्देशपरं प्रतिज्ञाश्लोकमाह प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः । इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः ॥१॥ ही मेरी अपूर्व रचना में भरे जाने पर सज्जनों के मन का हरण करेंगे ।।४।। वैजेय के प्रिय पुत्र हीरप के अनुरोध से शान्तिषेण नामक शिष्य के पढ़ने के लिए यह परीक्षामुखपञ्जिका प्रारम्भ की गई है।। ५ ॥ बाधारहित होने रूप लक्षण से युक्त अथवा श्रद्धानादि गुणों को उत्पन्न करने रूप लक्षण से युक्त अथवा पूर्वापर विरोध से रहितपने रूप लक्षण वाली श्री से युक्त, ऐसा जो नय प्रमाण रूप युक्ति का प्रतिपादन करने से युक्तिशास्त्ररूप न्याय वाला अपार समुद्र है तथा जिसमें अप्रमेय (जिसकी गणना नहीं की जा सकती ) रत्नों का सार है, उसके अवगाहन करने के लिए युक्तिशास्त्र के संस्कार से रहित जो अव्युत्पन्न पुरुष हैं, वे असमर्थ हैं अतः उस युक्तिशास्त्र रूप समुद्र में अवगाहन के लिए जहाज के समान इस परीक्षामुख ग्रन्थ को आचार्य माणिक्यनन्दी ने कहा है। उस परीक्षामुख प्रकरण के सम्बन्धादि तीन ( सम्बन्ध, अभिधेय और शक्यानुष्ठान रूप इष्ट प्रयोजन ) के जाने बिना विचार करने में चतुर चित्त वालों को प्रवृत्ति नहीं हो सकती अतः उक्त अर्थ के पुनः कथन रूप तीनों के अनुवाद पूर्वक वस्तु का निर्देश करने वाले अर्थात् प्रमाण और प्रमाणाभास रूप अभिधेय का कथन करने वाले प्रतिज्ञा श्लोक को कहते हैं । ( वर्तमान का अङ्गीकार प्रतिज्ञा है)।..... श्लोकार्थ-प्रमाण से अर्थात् सम्यक् ज्ञान से अर्थ की सम्यक् प्रकार सिद्धि होती है और प्रमाणाभास से अर्थ की सम्यक प्रकार सिद्धि नहीं होती है। इसलिए मैं प्रमाण और प्रमाणाभास का प्रसिद्ध संक्षिप्त लक्षण कनिष्ठजनों अर्थात् मन्दबुद्धियों के लिए कहूँगा ॥ १ ॥ . विशेष—यद्यपि अर्थ शब्द विषय, मोक्ष, शब्द वाच्य, प्रयोजन, व्यवहार, धन, शास्त्र इत्यादि अनेक अर्थों में प्रसिद्ध है तथापि यहाँ इसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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