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________________ ३ प्रथमः समुदेशः अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुद्दध्र येन धीमता। न्यायविद्यामतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥२॥ प्रभेन्दुवचनोदारचन्द्रिकाप्रसरे सति । मादृशाः क्व नु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः॥ ३॥ तथापि तद्वचोऽपूर्वरचनारुचिरं सताम् । चेतोहरं भृतं यद्वन्नद्या नवघटे जलम् ॥ ४ ॥ देखा जाता है । दूसरी बात यह है कि ( सर्वथा ) औषध के समान जिनेन्द्र नमस्कार नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार निर्विघ्न अग्नि के होते हए न जल सकने योग्य ईंधनों का अभाव रहता है ( अर्थात् सम्पूर्ण प्रकार के ईंधन भस्म हो जाते हैं), उसी प्रकार उक्त नमस्कार के ज्ञान व ध्यान की सहायता युक्त होने पर असाध्य विघ्नोत्पादक कर्मों का भी अभाव होता है ( अर्थात् सब प्रकार के कर्म विनष्ट हो जाते हैं ) तहाँ ज्ञान ध्यानात्मक नमस्कार को उत्कृष्ट एवं मन्द श्रद्धानयुक्त नमस्कार को जघन्य जानना चाहिए । शेष असंख्यात लोक प्रमाण भेदों से भिन्न नमस्कार मध्यम है और वे सब समान फल वाले नहीं होते; क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है (धवला ९।४, १, ११५, १)।। __ आपने जो यह कहा है कि मंगल करने या न करने पर भी (निर्विघ्नता का अभाव या सद्भाव दिखाई देने से) वहाँ व्यभिचार दिखाई देता है, सो यह कहना अयुक्त है; क्योंकि जहाँ देवता नमस्कार दान, पूजादि रूप धर्म के करने पर भी विघ्न होता है, वहाँ वह पूर्वकृत पाप का ही फल जानना चाहिए, धर्म का दोष नहीं और जहाँ देवता नमस्कार दान पूजादि रूप धर्म के अभाव में भी निर्विघ्नता दिखायी देती है, वह पूर्वकृत 'धर्म का ही फल जानना चाहिए, पाप का अर्थात् मङ्गल न करने का नहीं । ( पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति १६।४ )। जिस बुद्धिमान् माणिक्यनन्दि ने भट्ट अकलङ्क स्वामी के वचन रूप समुद्र से न्यायविद्यारूप अमृत को प्रकट किया, उन माणिक्यनन्दि आचार्य को हमारा नमस्कार हो ॥२॥ प्रभाचन्द्र नामक आचार्य के वचन रूप उदार चाँदनी का प्रसार होते हुए जुगनू के समान अल्प बुद्धि रूपी ज्योति के धारक हम जैसे लोगों को गणना कहाँ सम्भव है ? अर्थात् कहीं सम्भव नहीं है ॥ ३ ॥ __तथापि जिस तरह नदी का नए घड़े में भरा हुआ जल सज्जनों के चित्त का हरण करने वाला होता है, उसी प्रकार प्रभाचन्द्र के वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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