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प्रमेयरत्नमालायां
निरुपम हितकारी दिव्यध्वनि । इनका विग्रह इस प्रकार होगा - मारविश्च इरा च मारवीरे, दुर्वारे कुहेतु दृष्टान्तेर्निवारयितुमशक्ये मारवीरे यस्य स तथोक्तः । मद से यहाँ रागादि उपलक्षित हैं इस प्रकार मदच्छिद् का अर्थ होगा - रागादि समस्त दोषों के विदारक |
' नतामर' इत्यादि पद्य द्वारा ग्रन्थकार लघु अनन्तवीर्य ने मङ्गलाचरण किया है । मङ्गल शब्द की दो व्युत्पत्तियाँ हैं - मङ्गं सुखं लातीति मङ्गलम् - मङ्ग अर्थात् सुख को जो लाए, वह मङ्गल है । मलं गालयति इति मङ्गलम् - अर्थात् जो कर्म मल का विनाश करे, वह मंगल है । मङ्गल स्वरूप आचरण मङ्गलाचरण है। कहा भी है
आदौ मध्येऽवसाने च मङ्गलं भाषितं बुधैः । तज्जिनेन्द्र गुणस्तोत्रं तदविघ्नप्रसिद्धये ॥ ( धवला १-१-१ )
आदि, मध्य और अन्त में आने वाले विघ्नों का नाश करने के लिए विद्वानों ने उक्त तीनों ही स्थानों पर मङ्गल कहा है और वह मंगल जिनेन्द्र का गुणस्तवन है ।
मंगलाचरण के निम्नलिखित प्रयोजन हैं
१ - नास्तिकता परिहार |
२- शिष्टाचार परिपालन ।
३ - पुण्य सम्प्राप्ति ।
४ - निर्विघ्न शास्त्र व्युत्पत्ति, परिसमाप्ति ।
प्रश्न - मंगल करके आरम्भ किए गए कार्यों के कहीं पर विघ्न पाए जाने से और उसे न करके भी प्रारम्भ किए गए कार्यों के कहीं पर विघ्नों का अभाव देखे जाने से जिनेन्द्र नमस्कार विघ्न विनाशक नहीं है ?
उत्तर - यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि जिन व्याधियों की औषधि की गई है, उनका अविनाश और जिनको औषधि नहीं की गई है, उनका विनाश देखे जाने से व्यभिचार ज्ञात होने पर भी काली मिरच आदि द्रव्यों में औषधित्व गुण पाया जाता है ।
प्रश्न - औषधियों का औषधित्व तो इसलिए नष्ट नहीं होता कि असाध्य औषधियों को छोड़कर केवल साध्य व्याधियों के विषय में ही उनका व्यापार माना गया है ?
उत्तर - तो जिनेन्द्र नमस्कार भी ( उसी प्रकार ) विघ्न विनाशक माना जा सकता है; क्योंकि उसका भी व्यापार असाध्य विघ्नों के कारणभूत कर्मों को छोड़कर साध्य विघ्नों के कारणभूत कर्मों के विनाश में
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