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________________ श्रीः प्रमेयरत्नमाला नतामरशिरोरत्नप्रभाप्रोतनखत्विषे । नमो जिनाय दुर्वारमारवीरमदच्छिदे ॥१॥ (प्रथम समुद्देश) झुके हुए देवों के मुकुटों के रत्नों की प्रभा से जिनके चरणों के नखों की कान्ति सुशोभित हो रही है तथा जिसका निवारण कठिन है इस प्रकार के वीर कामदेव के मद का जो छेदन करने वाले हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार हो ॥ १॥ विशेषार्थ-नतामर शिरोरत्न इत्यादि का टिप्पणकार ने एक दूसरा अर्थ किया है, जो अन्वय के अनुसार इस प्रकार है-नतामरशिरोरत्तप्रभाप्रोतनखत्विषे = प्रणाम करते हुए चार निकाय के देवों के चंचल मकूटों में जड़े हुए मणिगणों से जिनके चरणों के नखों की कान्ति मुशोभित हो रही है, ऐसे जिनाय नमः-समस्त भगवान् अर्हत्परमेश्वर समूह को नमस्कार हो । वे अनेक प्रकार के विषम, गहन भव में भ्रमण के कारण पाप समूह को जीतने के कारण जिन कहलाते हैं। 'दुर्वारमारवीरमदच्छिदे'दुर्वार-अन्य वादियों के द्वारा जिन्हें जीता नहीं जा सकता है अर्थात् जिनकी शक्ति अप्रतिहत है। मां लक्ष्मी रातीति मारः-लक्ष्मीदायक अर्थात मोक्षमार्ग के नेता । वीर:-विशेषेण ईर्ते सकलपदार्थजातं प्रत्यक्षी करोतीति वीर:-विशेष रूप से समस्त पदार्थों के समूह को प्रत्यक्ष करने के कारण वोर अर्थात सर्वज्ञ या समस्त तत्त्वों के ज्ञाता हैं। मारश्च असौ वीरश्च मारवीरः-जो मोक्षमार्ग के नेता और सर्वज्ञ हैं। मदच्छित् मदं मानकषाय छिनत्ति विदारयति इति मदच्छित् = जो मानकषाय का विदारण करते हैं । मारवीरश्चासौ मदच्छिच्च मारवीरमदच्छित् = जो मोक्षमार्ग के नेता, सर्वज्ञ और मानकषाय के विदारक हैं। अथवा मा प्रमेय परिच्छेदक केवलज्ञानमेव रविः अशेषप्रकाशत्वात्-समस्त पदार्थों का प्रकाशक होने से केवलज्ञान ही जिनका रवि ( सूर्य ) है । इरा-मृदु, मधुर, गम्भीर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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