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________________ २६ प्रमेयरत्नमालायां कर्म और क्रिया की ही प्रतीति मानना, प्रमाण की प्रमाणता स्वतः और अप्रमाणता परतः, जैमिनीय षट् प्रमाण, वेद की प्रमाणता, अनुमान के चार अवयव, पुरुष की सर्वज्ञता का निषेध, शब्द की व्यापकता, वेद की अपौरुषेयता, शब्दों की नित्यता, भावनावाद, नियोगवाद, विधिवाद, अस्वसंवेदनवाद । वेदान्त-वेदान्त का अर्थ है-वेदान्त का अन्त । प्रारम्भ में इस शब्द से उपनिषदों का बोध होता था। पीछे उपनिषदों के आधार पर जिन विचारों का विकास हुआ, उनके लिए भी इस शब्द का व्यवहार होने लगा। वेदान्त दर्शन उत्तरमीमांसा के नाम से प्रसिद्ध है । जैमिनी की मीमांसा पूर्वमीमांसा कही जाती है। प्रमेयरलमाला में वेदान्त के सिद्धान्तों की समालोचना की गयी है । वेदान्त का कहना है कि यह सभी दृश्यमान पदार्थ निश्चय से परमब्रह्म ही हैं, इसके अतिरिक्त इस जगत में कोई वस्तु नहीं है। हम लोग उसकी पर्यायों को तो देखते हैं, किन्तु उसे कोई नहीं देख सकता । इस मान्यता पर शंका की गई है कि परमब्रह्म को ही परमार्थसत् मान लेने पर 'यह घट है, यह पट है इत्यादि रूप से जो प्रतिभास होता है, वह कैसे बनेगा ? ब्रह्मा का इस जगत् की सृष्टि का क्या प्रयोजन है ? क्रीड़ा के वश वह जगत् की रचना करता है तो उसके प्रभुता नहीं रहती, इत्यादि विकल्प उठाकर परमब्रह्म का निषेध किया गया है । लघु अनन्तवीर्य के उत्तरवर्ती जैन न्याय ग्रन्यकार हेमचन्द्र-हेमचन्द्र (वि० सं० ११४५-१२२८) बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य थे । व्याकरण, कोश, छन्द, अलंकार, काव्य, चरित्र, न्याय आदि प्रत्येक विषय पर इन्होंने विद्वत्तापूर्वक ग्रन्थ लिखे । इनका सुप्रसिद्ध दर्शनिक ग्रन्थ प्रमाणमीमांसा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हेमचन्द्र के सामने जैनाचार्यों की एक लम्बी परंपरा थी । प्रमाणमीमासा का दार्शनिक आधार इन जैनाचार्यों की रचनायें हैं । प्रमेयरलमाला का इस पर विशेष प्रभाव है। प्रमाणमीमांसा के अतिरिक्त हेमचन्द्र ने अयोगव्यवच्छेदिका तथा अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक दो द्वात्रिंशिकायें भी लिखीं। इनमें से अव्ययोग व्यवच्छेदिका पर मल्लिषण ने स्याद्वादमञ्जरी टीका भी लिखी है, जो न्याय के अध्येताओं में लोकप्रिय है। यशोविजय-विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के विद्वान् उपाध्याय यशोविजय का नाम नव्यन्याय की शैली में लिखने वाले जैन नैयायिकों में अग्रगण्य है। इन्होंने अनेकान्त व्यवस्था नामक ग्रन्थ नव्य न्याय की शैली में लिखकर अनेकान्तवाद की पुनः प्रतिष्ठा की। प्रमाणशास्त्र पर जैनतर्कभाषा और ज्ञानबिन्दु लिखकर जैन परम्परा का गौरव बढ़ाया । नय पर भी नयप्रदीप, नयरहस्य १. दत्त तथा चाट्टोपाध्याय : भारतीय दर्शन पृ० २०९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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