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प्रस्तावना
क्लेशकर्मविपाकाशथैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः । तत्र निरतिशय सर्वज्ञ बीजम् ।
स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ।। इस मत का खण्डन प्रमेयरत्नमाला में नैयायिकों के सृष्टिकर्ता ईश्वर के खण्डन के साथ किया गया है ।।
यौगदर्शन (न्याय-वैशेषिक)-टिप्पणकार ने योग से तात्पर्य नैयायिक वैशेषिकाणाम् कहकर न्याय और वैशेषिक दोनों दर्शनों को योग की परिधि में सम्मिलित किया है। यौगदर्शन की समस्त मान्यतायें न्याय वैशेषिक दर्शन में पायी जाती हैं। प्रमेयरत्नमाला का बहभाग यौग, मीमांसक तथा बौद्धदर्शन की समीक्षा करने में प्रयुक्त हुआ है। योग की वे मान्यतायें जिनका निराकरण प्रमेयरत्नमाला में किया गया है, निम्नलिखित हैं
सन्निकर्ष, ज्ञानान्तर प्रत्यक्षवाद, ज्ञान का स्त्र व्यवसायी न होना, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द की प्रमाणता, प्रत्यभिज्ञान का भिन्न प्रमाण न होना, तर्क को स्वतन्त्र प्रमाण न मानना, अर्थ और आलोक को ज्ञान की कारणता, अनुमान के पंच अवयव, सृष्टिकर्ता ईश्वरवाद, समवाय, हेतु पञ्चलक्षणत्व, परस्पर निरपेक्ष सामान्य और विशेष प्रमाण का विषय, प्रमाण से उसके फल की सर्वथा भिन्नता, प्रमाण का अस्वसंवेदीपना, आत्मा का विभुत्व तथा सत्ता के सम्बन्ध में सत् होना आदि ।
मीमांसादर्शन-मीमांसा का मुख्य उद्देश्य है वैदिक कर्मकाण्ड की पुष्टि करना। वह दो प्रकार से (१) वैदिक विधि-निषेधों का अर्थ समझने के लिए और आपस में उनकी संगति बैठाने के लिए व्याख्या प्रणाली निर्धारित करना, (२) कर्मकाण्ड के मूल सिद्धान्त का युक्ति द्वारा प्रतिपादन करना। मीमांसा का मूल ग्रन्थ है जैमिनि सूत्र । दार्शनिक सूत्रों में यह सबसे बड़ा है । इसके बारह अध्याय हैं। जैमिनि के सूत्र पर शवर स्वामी का विशद भाष्य है, जिसे शावर भाष्य कहते हैं । इसके बाद बहुत से टीकाकार और स्वतन्त्र ग्रन्थकार हुए। उनमें दो मुख्य हैं-कुमारिल भट्ट और प्रभाकर (गुरु) । इन दोनों के नाम पर मीमांसा में दो प्रधान सम्प्रदाय चल पड़े-भाट्टमीमांसा और प्रभाकर मीमांसा' । प्रमेयरत्नमाला में मोमांसादर्शन का जैमिनीय, भाट्ट और प्राभाकर के नाम से प्रायः उल्लेख हुआ है । यहाँ मीमांसकों के निम्नलिखित सिद्धान्तों का खण्डन किया गया है
- प्राभाकरों का अज्ञान रूप भी ज्ञातव्यापार को प्रमाण मानना, जैमिनीय परोक्षज्ञानवाद, भाट्टों का कर्ता और कर्म की ही प्रतीति मानना, जैमिनीयों का कर्ता,
१. दत्त तथा चाट्टोपाध्याय : भारतीय दर्शन, पृ० १९८ ।
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