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________________ २४ प्रमेयरत्नमालायां से, व्यन्तरादिक के देखने से, पूर्वभव के स्मरण से, पृथिवी आदि भूतचतुष्टय के गुण-धर्म-स्वभाव आदि का अन्यवपना नहीं पाए जाने से स्वभावतः ज्ञाता दृष्टा और सनातन आत्मा स्वयं सिद्ध है । बौद्धदर्शन - प्रमेय रत्नमाला में निम्नलिखित बौद्ध सिद्धान्तों की समीक्षा है - निर्विकल्प प्रत्यक्षवाद, शून्यवादियों का प्रमाण को न मानना, प्रत्यक्ष की अव्यवसायात्मकता, स्मृति की अप्रमाणता, प्रत्यभिज्ञान की अप्रमाणता, तर्क की अप्रमाणता, क्षणभङ्ग वाद, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष, तदुत्पत्ति ( ज्ञान का पदार्थ से उत्पन्न होना ), ताद्र्प्य ( पदार्थ के आकार होना और तदध्यवसाय ( उसी पदार्थ को जानना), परिच्छेद होने से पदार्थ की ज्ञानकारणता, हेतु का त्रैरूप्य लक्षण, प्रयोग काल में मात्र हेतुको आवश्यकता, कारण हेतु को न मानना, शब्दों का अर्थ का वाचक न होना, अन्यापोह, विशेष ही प्रमाण का विषय तथा प्रमाण और फल में अभेद आदि । सांख्य- सांख्यदर्शन अत्यन्त प्राचीन है । इसके प्रणेता महर्षि कपिल हैं । कुछ विद्वानों के अनुसार इनका सम्बन्ध संख्या से है; क्योंकि इसमें तत्त्वों की संख्या निर्धारित की गई है । दूसरा मत है कि संख्या का अर्थ है -- सम्यक् ज्ञान और इसी अर्थ में यह दर्शन सांख्य कहलाता है । सांख्य प्रकृति और पुरुष केवल दो मूल तत्त्व मानता है । प्रमेयरत्नमाला में सांख्यदर्शन की अनेक मान्यताओं का निराकरण किया गया है । ये मान्यतायें इस प्रकार हैं अस्वसंवेदन ज्ञानवाद, प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम रूप तीन प्रमाणों की प्रमाणता, पक्ष, हेतु और दृष्टान्त के भेद से अनुमान के तीन अवयव, पदार्थ की मात्र सामान्यात्मकता, प्रधान का स्वरूप, पुरुष का स्वरूप, २५ तत्त्व तथा सत्कार्यवाद आदि । योग - चित्तवृत्ति का निरोध करना योग कहलाता है । महर्षि पतंजलि का बनाया हुआ योगसूत्र इसका प्रमुख ग्रन्थ है, इस पर व्यासभाष्य लिखा गया है, जो बहुत प्रसिद्ध है । योगदर्शन को पतंजलि के नाम पर पातञ्जल दर्शन भो कहा जाता है । इसमें योग्य का स्वरूप, चित्तवृत्ति को रोकने के उपाय, दुःखनिवृत्ति, योगजनित सिद्धियाँ तथा कैवल्य का निरूपण है । अनन्तवीर्य ने ईश्वर के सद्भाव के समर्थन में पतंजलि के निम्नलिखित सूत्रों को उद्धृत किया है- १. श्री सतीशचन्द्र चट्टोपाध्याय एवं धीरेन्द्र मोहनदत्त : भारतीय दर्शन पृ० १६३, १६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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