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________________ प्रस्तावना या वेदमूलकता के कारण धर्मशास्त्र के कि जो स्मृति मनुस्मृति के सकती है - मन्वर्थ विपरीता तु या स्मृतिः सा न शस्यते । के प्रामाण्य प्रतिपादनार्थ स्पष्ट रूप से कहा है कि इसमें जो वह सब वेदोक्त है ? - २३ रचयिताओं ने यहाँ तक घोषणा कर दी विपरीत है, वह मान्य या प्रशंसनीय नहीं मानी जा यः कश्चित्कस्यचिद्धर्मो मनुना परिकीर्तितः । स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ॥ - मनुस्मृति २७ मनु ने अपनी स्मृति धर्म कहा गया है, मनुस्मृति के बाद याज्ञवल्क्य स्मृति की मान्यता है । इसमें वर्णों के नियम, संस्कार, विवाह गृहस्थ धर्म, स्नातक धर्म, भक्ष्याभक्ष्य नियम, द्रव्यशुद्धि, दान, श्राद्ध, ग्रहशान्ति, राजधर्म, ऋणादान, साक्षि, लेख्य, दाय विभाग, क्रयविक्रय के नियम, वेतनादान दण्ड, आपद्धर्म, अशौच, वानप्रस्थ, यतिधर्म तथा प्रायश्चित्त के नियम वर्णित हैं । चार्वाक दर्शन - चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष को ही एकमात्र प्रमाण मानता है । यह सिद्ध किया है कि प्रत्यक्ष के इसके लिए उन्होंने धर्मकीर्ति के प्रमेयरत्नमाला के कर्ता ने अनेक प्रमाणों द्वारा अतिरिक्त अनुमानादि प्रमाण भी सिद्ध होते हैं । प्रमाण समुच्चय की एक कारिका उद्धृत की हैप्रमाणेतर सामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः । प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् ॥ प्रमाण सामान्य और अप्रमाण्य सामान्य की स्थिति होने से, बुद्धि के ज्ञान से और परलोकादि के प्रतिबंध से अन्य प्रमाण रूप सद्भाव सिद्ध होता है । Jain Education International चार्वाक दर्शन की मान्यता है कि आत्मा भूतचतुष्टय से उत्पन्न होता है । इसके विरोध में कहा गया है कि अचेतन भूतों से चेतन आत्मा की उत्पत्ति नहीं हो सकती । यदि आत्मा इन पृथिवी आदि चार भूतों से उत्पन्न होता तो उसमें उन चारों भूतों के धारण आदि स्वभाव अवश्य पाए जाने चाहिए, चूँ कि नहीं पाए जाते हैं, इससे ज्ञात होता है कि आत्मा पृथिवी आदि भूतचतुष्टय से उत्पन्न नहीं होता । इसकी पुष्टि में प्रमेयकमलमार्त्तण्ड का एक पद्य उद्धृत किया गया है, जिसका तात्पर्य यह है कि तत्काल जात बालक के स्तनपान की इच्छा १. मनुस्मृति - डॉ० जयकुमार जैन द्वारा लिखित प्रस्तावना पृ० ५ । २. वही पृ० १ । ४. प्रमेयरत्नमाला चतुर्थ समुद्देश, उद्धरण - ४० ॥ शिष्यादि की अनुमान का For Private & Personal Use Only ३. प्रमेयरत्नमाला द्वितीय समुद्देश, उद्धरण - २ । www.jainelibrary.org
SR No.001131
Book TitlePrameyratnamala
Original Sutra AuthorShrimallaghu Anantvirya
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1992
Total Pages280
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size17 MB
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